प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को व्रत रखना चाहिए

जैसे एकादशी व्रत करना चाहिए वैसे ही प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को व्रत करना चाहिए । प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को भोजन वर्जित है । ग्रंथों के अनुसार प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को भोजन नहीं करना चाहिए और व्रत रखना चाहिए ।

श्रीराम नवमी अर्थात चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी का विशेष महत्व है । इसलिए सभी को श्रीराम नवमी को उपवास-व्रत रखना चाहिए । यह वर्णन सनातन धर्म के कई ग्रंथों में मिलता है ।

इस प्रकार भगवान श्रीराम के भक्तों को केवल राम नवमी को ही नहीं बल्कि प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को व्रत रखना चाहिए ।

 ।। जय श्रीराम ।।

प्रगटे राम रघुवीरा, अवधपुर बीथिन में भीरा

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रामजी सदा साथ निभाते हैं

संसार का सब कुछ अर्थात सारा संसार एक दिन बिछुड़ जाता है, नहीं बिछुड़ते हैं तो एक मात्र रामजी । राम जी जन्म से लेकर मरण तक और उसके बाद भी साथ निभाते हैं । इस प्रकार संसार तो बिछुड़ जाता है लेकिन मेरे रामजी कभी नहीं बिछुड़ते हैं ।

इतना ही नहीं कोई पहले तो कोई बीच में साथ छोड़ जाता है । और अंत में तो कोई साथ में नहीं ठहरता है और न ही कोई ठहरता है अर्थात सबको संसार छोड़कर जाना पड़ता है । 

रामजी सभी के आदि, मध्य और अंत के साथी हैं लेकिन मन राम जी के चरण को न पकड़कर संसार को ही पकड़ता है । संसार को जबरन पकड़ता है और लोभ, मोह की रस्सियों में जकड़ लिया जाता है । संसार में जिसे पकड़ो वह वैसे ही छूट जाता है, निकल जाता है जैसे मुट्ठी में पकड़ा हुआ जल ।

संसार रूपी चक्की के दो पाटे हैं एक का नाम सुख और दूसरे का नाम दुख है । इंही दो पाटों के बीच में पिस-पिस कर जीव चौरासी का चक्कर लगाता रहता है ।

ऐसी स्थिति में कोई बिना कृपासिंधु भगवान रघुनाथ जी की कृपा के और किस बिधि से निकल सकता है ? अतः हे मेरे मन अब तो तूँ सीताराम जी के सुखदायक चरणों को मत भुला ।

ऐसा कौन है जो रामजी के गुणों और उनकी करनी को याद कर-करके भव सागर से पार न हो जाए अर्थात कोई भी ऐसा नहीं है जो रामजी के गुणों और उनके चरित्र का चिंतन करके भव सागर से पार न उतर जाए । दीन जनों की बिगड़ी तो रामजी की कृपा से ही सुधरती आई है और सुधरती है । ऐसे में मुझ दीन की भी बिगड़ी रामजी की कृपा से बन जायेगी- 

जग बिछुरै एक राम न बिछुरैं 

आदि मध्य अरु अंत के साथी राम चरन नहिं पकरै ।।१।।

कोउ पहले कोउ बीच में छोड़ै अंत संग नहिं ठहरै

जग में जाइ जगत हठि पकरै लोभ मोह रजु जकरै ।।२।।

जो पकरै सो हाथ से जाए मूठी जल जिमि निसरै ।

भवचक्की सुख दुख दो पाटे पिस-पिस चौरासी टहरै ।।३

कृपासिंधु रघुनाथ कृपा बिनु केहि बिधि कोउ पुनि निकरै ।

सीताराम चरन सुखदायक अब जनि रे मन बिसरै ।।४

सुमिर-सुमिर रघुपति गुन करनी कोउ नहिं भवनिधि उतरै 

दीन संतोष राम कृपा ते दीन जनन की सुधरै ।।५।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की कीजे लाज विरद अरु पन की

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।। 

चित करो राम कहे ग्रंथन की । 

कीजे लाज विरद अरु पन की ।।१।  

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । 

हारत भीर सदा दीनन की ।।२। 

कूर कपूत सकल दुर्जन की । 

नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।३। 

सरन राम पद सब असरन की । 

सादर बाँह गहत निबरन की ।४।   

सार संभार राम दीनन की । 

करत सदा जोगवत जन मन की ।।५।  

सुनत राम सबबिधि हीनन की । 

कोल किरात आदि बनरन की ।।६।  

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । 

राखो लाज नाथ अब जन की ।।७।  

दीन संतोष नहीं तन मन की । 

जप तप बल नहिं और जतन की ।।८। 

मोरे आश राम चितवन की । 

पतितपावन अरु शील सदन की ।।९। 

।। जय श्रीराम ।।

जो रघुनंद सोई नंदनंदा 

कई लोग भगवान श्रीकृष्ण को भगवान श्रीराम से भिन्न अथवा उत्कृष्ट बताने अथवा सिद्ध करने में लगे रहते हैं । इसके दो प्रमुख कारण हैं । एक है अज्ञानता और दूसरा है आसक्ति ।

 लेकिन सिद्धांत यही है कि जो दशरथ नंदन श्रीराम हैं वे ही नंद नंदन श्रीकृष्ण हैं । जो लोग भेद करते हैं उन्हें मूर्ख अथवा मतिमंद कहा गया है-

   जो रघुनंद सोई नंदनंदा । उभै भेद भाखत मतिमंदा ।।

रत्नहरि जी कहते हैं कि सुखों की खानि जिन राम जी को रानी कौशल्या ने अयोध्या में जन्म दिया वे ही राम जी गोकुल में यशोदा के पुत्र हैं-

जन्यो जो इत कौशल्या रानी । जसुमत सुत उत सोई गुनखानी ।।

रत्नहरि जी आगे कहते हैं कि श्रीराम ही श्रीकृष्ण हैं और श्रीकृष्ण ही श्रीराम हैं और दोनों के भजन से भव भय का नाश हो जाता है-

रघुपति कृष्ण कृष्ण रघुवीरा । उभय भजन भंजन भवभीरा ।।

इस प्रकार रघुकुल नंदन श्रीराम ही नंद नंदन श्रीकृष्ण हैं । और मतिमंद लोग ही प्रलाप करते हैं और राम कृष्ण को भिन्न बताते हैं । अथवा किसी को कम और किसी को ज्यादा बताते हैं ।

इसी तरह साकेत महाकाव्य के रचनाकार श्रीमैथिलीशरण गुप्त जी राम और कृष्ण को एक बताते हुए कहते हैं कि –

धनुष वाण या वेणु लो श्याम रूप के संग 

मुझपे चढ़ने से रहा राम दूसरा रंग ।।

।। भगवान श्रीरामकृष्ण की जय ।।

कराल कलिकाल में मुख्यतः चार तरह के साधु-संत- चौथे कोटि के साधु-संत से बचने की जरूरत

साधारण जन मानस से लेकर सभी के मन में साधु-संतों के प्रति बहुत आदर और सम्मान होता है और होना भी चाहिए । लेकिन इस कराल कलिकाल में कुछ लोग जो साधु-संत के वेश में रहकर लोगों को गुमराह करते हैं उनसे बचना बहुत जरूरी है । इसलिए ग्रंथों के आधार पर यहाँ चार तरह के संत बताए गए हैं ।

कलियुग में मुख्यतः चार तरह के संत होते हैं । पहले तरह के वे संत होते हैं जिनके लिए ‘हरि तजि किमपि प्रयोजन नाहीं’ चरितार्थ होता है । अर्थात ये दिन रात भगवान के ही चिंतन में लगे रहते हैं । और किसी बात से इन्हें कोई लेना देना नहीं होता है ।

दूसरे कोटि के वे संत होते हैं जो आश्रम आदि बनवाने में और सजाने सवाँरने में व्यस्त नहीं रहते अर्थात इनके लिए ‘बहु दाम सवाँरहिं धाम यती’ लागू नहीं होता है। लेकिन इनके मित्र बहुत हो जाते हैं । जान-पहिचान अधिक हो जाने से भजन-साधन में और मुख्यतः बैराग्य में बाधा होती है । यह संकेत पुराणों में मिलता है ।

तीसरे तरह के वे संत होते हैं जिनके लिए ‘बहु दाम सवाँरहिं धाम यती । विषया हरि लीन्ह गई विरती’ चरितार्थ होता है। यह वर्णन श्रीरामचरितमानस जी के उत्तरकाण्ड में मिलता है । इस कोटि के साधक आश्रम बनवाने में, घर-कमरे बनवाने और सजाने सवाँरने में व्यस्त रहते हैं । भगवान की माया की गति बड़ी सूक्ष्म है वह कब किसे अपने लपेटे में ले ले कुछ कहा नहीं जा सकता है । और पता भी नहीं चलता कि माया ने अपने लपेटे में ले लिया है और अब ‘आए थे हरि भजन को ओटन लगे कपास’ चरितार्थ हो रहा है ।

चौथे कोटि में वे लोग आते हैं जो साधु-संत वेश धारी होते हैं और जो भगवान को छोड़कर बाकी सब चीजों से प्रयोजन रखने वाले होते हैं । इन्हें भगवान नहीं संसार ही चाहिए होता है । ये ऐसे लोग होते हैं जिन्हें दो विकल्प मिल जाए कि एक ओर रामजी हैं और दूसरी ओर दाम तो ये दाम की ओर ही जाएँगे । ऐसे लोग उल्टी पल्टी पढ़ाकर लोगों को गुमराह करते हैं । और भगवान से न जोड़कर अपने से तथा किसी और से ही लोगों को जोड़े रहते हैं । ऐसे लोगों से बचने की बड़ी जरूरत होती है-

रामदास छल कपट बहु, करत दिवस अरु रात 

देखि देखि माया घनी, जग मूरख बनि जात ।।

जप तप करते नाम को, छाया मुदित खिचाय 

रामदास नहि राम को, दुनिया रहे रिझाय ।।

जग रीझा तो क्या हुआ, रीझे नहि जो राम ।

रामदास चुनने लगे, राम दाम बिच दाम ।।

नहिं मतलब कछु राम से, चहैं धरा धन धाम 

रामदास इनसे बचैं, जिन्हें बचावैं राम ।।

।। जय श्रीराम ।।

जय बजरंगबली गिरिधारी

। श्रीहनुमते नमः 

जय बजरंगबली गिरिधारी ।

विग्रह बानराकार पुरारी ।।१ जय. ।।

राम काज कारन वपु धारी ।

मंगल मूल अमंगल हारी ।।२ जय. ।।

लहत मोद प्रभु वदन निहारी ।

रामभक्त सेवक हितकारी ।।३ जय. ।।

निज सेवा बस किहेउ खरारी ।

सुखसागर श्रीराम सुखारी ।।४ जय. ।।

साधु संत सुर नर मुनि नारी ।

गावत गुन कहि महिमा भारी ।।५. जय. ।।

बाल समय मुख धरेउ तमारी ।

छाई लोक सकल अँधियारी ।।६. जय।।

विनय सुनत लखि लोक दुखारी ।

छाड़ेउ रवि फैली उजियारी ।।७ जय. ।।

सीता खोजि भालु कपि हारी ।

बोले बस अब आस तुम्हारी ।।८ जय. ।।

सीता सुधि लायेउ पुर जारी ।

राम कहेउ सुत बड़ उपकारी ।।९ जय. ।।

लखन गिरेउ जब समर मझारी ।

दिहेउ सजीवन द्रोण उपारी ।।१० जय. ।।

नाग फाँस बस देखि अघारी ।

महावीर लायेउ उरगारी ।।११ जय. ।।

सेन सहित अहिरावण मारी ।

अनुज सहित लायेउ दनुजारी ।।१२ जय. ।।

गिरि गोवर्धन उपकृत भारी ।

वृजमण्डल महुँ थपेउ विचारी ।।१३ जय. ।।

पारथ रथ ध्वज कहे मुरारी ।

बसे विजय भारत अधिकारी ।।१४ जय. ।।

साधु संत सब कहत पुकारी ।

राखे कोटि गरीब सुधारी ।।१५ जय. ।।

राम तात सीता महतारी ।

अब जनि राखो मोहि बिसारी ।।१६ जय. ।।

कृपा कोरि मोहि बेगि निहारी ।

रामदूत अब लेउ उबारी ।।१७ जय. ।।

दीन संतोष करवरें टारी ।

होउ सहाय दीन दुख हारी ।।१८ जय. ।।

 । जय बजरंगबली गिरिधारी की 

श्रीराम प्रभु कृपा: मानो या न मानो

बेराम होना भी एक बीमारी है

संत और सदग्रन्थ कहते हैं कि यदि आराम चाहते हो, तो राम को चाहो । बिना राम के आराम नहीं मिलता । लेकिन हम सभी आराम तो चाहते हैं, परन्तु राम को नहीं चाहते । इसलिए ही वास्तविक आराम नहीं मिलता । बिषयों का सुख स्थायी आराम नहीं देता । बाहरी और आंतरिक सुख में बहुत फर्क होता है । सुसंत बाहर से भले ही कंगाल दिखें पर अंदर से सुखसागर में गोते लगा रहे होते हैं ।

मानव मन के कहने पर ही सब कुछ करता है । यह मन ही है जो किसी को आराम से बैठने नहीं देता । क्योंकि यह हमेशा दौड़ता ही रहता है । कभी विश्राम नहीं करता । और जब तक मन विश्राम नहीं करेगा । रामजी की ओर दौड़ने के लिए इसके पास समय ही नहीं रहेगा । और जब तक रामजी की ओर दौड़ेगा नहीं । वास्तविक आराम नहीं मिलेगा ।

जब तक मन को आराम नहीं मिलेगा । तब तक हमें भी आराम मिलने वाला नहीं है । मन को आराम मन की गति में विराम लगा कर ही दिया जा सकता है । जब किसी के पास काम होता है तो वह विश्राम थोड़े करता है । कहता है दम मारने को समय नहीं है । यह कर लिया और वह करना है । इसके बाद वह करने जाना है । क्योंकि बहुत काम है । इसीतरह जब तक मन में काम है । विश्राम कहाँ ? और बिना विश्राम राम कहाँ ? और बिना राम आराम कहाँ ?

मन के विश्राम से यहाँ मतलब बिषयों की ओर जाने से विराम लगाने से है ।  लेकिन मन आसानी से मानने वाला तो है नहीं ।  आखिर तब किया क्या जाय ? इसे समझाना चाहिए ।  फिर भी न माने तो जोर-जबरदस्ती भी करना चाहिए ।  इसे प्रलोभन देना चाहिए ।  बताना चाहिए कि संसार के रस तो बहुत पी चुके थोड़ा राम नाम रस भी पीकर देखो । किसी भी तरह इसे राम जी से जोड़ने का प्रयास करना चाहिए ।  जबरदस्ती ही सही राम-राम करना शुरू कर देना चाहिए । रामजी का ध्यान करना चाहिए ।  राम जी के गुणगणों को इसे बार-बार सुनाना चाहिए । यह सुनना चाहे अथवा नहीं । और क्या तरीका हो सकता है ? रस्सी से तो इसे बाँधा नहीं जा सकता । धीरे-धीरे जब इसे रामजी के गुणगणों और राम नाम से अनुराग होने लगेगा तो लोभ, मोह, काम, क्रोधादि स्वतः रामजी की कृपा से दूर होने लगेंगे । जितना अनुराग बढ़ेगा उतना ही बिराग भी बढ़ेगा ।

सच में संसार में क्षणिक आराम देने वाली तो बहुत चीजें हैं । लेकिन इनसे मन संतुष्ट कहाँ होता है ? मन वास्तविक सुख यानी आराम चाहता है । परन्तु सच्चा सुख इसे मिलता ही नहीं । इसलिए मन रुपी मृग की तृष्णा ज्यों की त्यों बनी रहती है । और यह चक्कर काटता रहता है ।

जब हम श्रम से थकें होते हैं तो हमें विश्राम करने से आराम मिलता है । परन्तु जब फिर से श्रम करने लग जाते हैं । पुनः विश्राम की जरूरत पड़ती है । जब हम भूंखे होते हैं तो हमें भोजन से आराम मिलता है । परन्तु कुछ समय बाद फिर भूँख लग जाती है । इसी तरह मन को स्थायी सुख नहीं मिल पाता । और इसकी तृष्णा बनी ही रहती है । तृष्णा लेकर पैदा हुए, जिए और फिर तृष्णा लेकर ही चले गए । इसी से भटकना पड़ता है । तृष्णा न रहे तो दुख भी न रहे । इससे छुटुकारा केवल रामजी की कृपा से ही मिल सकता है । नहीं तो बिषयों से बिराग आसानी से नहीं होता ।

जब हमारे मन की कोई कामना पूरी होती है तो हमे क्षणिक सुख यानी आराम मिलता है । लेकिन एक ही कामना तो होती नहीं । एक के बाद एक और हर कामना पूरी होने से ही आराम मिल सकता है । नहीं तो मन खिन्न रहेगा ही । कामनाओं का कोई अंत नहीं होता । मन की तृष्णा आसानी से मिटने वाली नहीं है ।

आखिर यह स्थिति क्यों बनी हुई है ?  मन की तृष्णा समाप्त क्यों नहीं होती ? सारे भोग मिल जाएँ तो उन्हें भोगकर भी मन पूर्णरूपेण सुखी  क्यों नहीं होता ?

क्योंकि मन इन छोटे-मोटे संसारिक सुखों से तृप्त होने वाला नहीं है । तृप्त कब होगा जब यह पूर्ण रूपेण सुखसागर में गोते लगायेगा । और सुखसागर हैं राम जी । अतः बिना राम के काम बनने वाला नहीं है । राम जी सभी सुखों के मूल हैं । बिना उनके हमें वास्तविक सुख यानी आराम नहीं मिल सकता ।

राम जी तो कण-कण में रमते हैं और इसलिए ही राम कहलाते हैं । फिर भी जब तक उन्हें बुलाया न जाय, उनका स्मरण न किया जाय वे नहीं आते । और जब तक मानव मन राम से दूर रहता है अर्थात राम से निकटता स्थापित नहीं करता । उसे सच्चा यानी वास्तविक आराम नहीं मिलता । जब राम के लिए मन में चाह उत्पन्न हो जाती है अर्थात जब मन राम का स्मरण करने लगता है तो राम जी पास आ जाते हैं । और आराम मिल जाता है । सच्चा आराम रामजी के आने से ही मिलता है ।

रामजी आ जाएँ तो आराम और अगर दूर चलें जाएँ तो इसे ही बेराम होना कहते हैं । राम को बुला लिया यानी उनका स्मरण किया या करने लगे तो राम के आने से आराम मिल जाता है ।  किसी की तबियत खराब हो जाय तो प्रायः लोग कहते हैं कि वे बेराम हैं । मतलब इन्होंने रामजी  को दूर कर (बिल्कुल भुला) दिया है और इसलिए इनसे  रामजी बहुत दूर चले गए हैं । जब राम जी दूर चले गए तो आराम कैसे होगा ?  स्वास्थ्य में सुधार होने पर कहते हैं कि अब आराम है । मतलब रामजी आ गए हैं और इसलिए आराम मिल गया । इसलिए राम जी को पास रखना चाहिए । यानी उन्हें भुलाना नहीं चाहिए जिससे बेराम होने की स्थिति ही न आये ।

       मानो या न मानो बेराम होना भी एक बीमारी है । भले ही लोगों व अपनी दृष्टि में हम स्वस्थ व आराम में दिखें । लेकिन वस्तुतः हम बीमार होते हैं  यह एक ऐसी आंतरिक बीमारी है । जिसका इलाज किसी भी ज्ञात आधुनिक चिकित्सा पद्धति में नहीं है । इसका इलाज किसी सद्गुर या सुसंत के द्वारा ही सम्भव हो सकता है । ये आसानी से न मिल सकें तो स्वतः राम-राम करते हुए रामजी का गुणगान पढ़ते व सुनते हुए हम इस बीमारी से बच सकते हैं । आज के समय में अधिकांश लोग इस बीमारी से पीड़ित हैं । परंतु भ्रम, अहंकार, मान, गुमान और अज्ञान आदि कुपथ्यों के वशीभूत होकर पथ्य को त्यागकर स्वस्थ व आराम में होने के वहम में जिए जा रहे हैं । 

   जय श्रीराम   

न भूतो न भविष्यति की उपमा वाला एक युद्ध: रामायण का रामा दल और रावण दल का युद्ध

इस पृथ्वी पर अब तक कई युद्ध हो चुके हैं । जिसमें से दो युद्ध विशेष उल्लेखनीय हैं । रामायण का रामा दल और रावण दल  का युद्ध और महाभारत का युद्ध । महाभारत के युद्ध में अनेकानेक लोग शामिल हुए थे और यह युद्ध कुल अठारह दिनों में ही समाप्त हो गया था । दोनों पक्षों से काफी जन और धन की हानि हुई थी ।

आज तक के सभी युद्धों में रामायण का युद्ध बड़ा भीषण और भयानक था । संत और ग्रंथ बताते हैं कि रामा दल और रावण दल के युद्ध जैसा रामा दल और रावण दल  का युद्ध ही है । ऐसा युद्ध न कभी पहले लड़ा गया और न ही भविष्य में लड़ा जायेगा और इसका पूरा-पूरा वर्णन देवताओं के लिए भी दुष्कर है । एक हजार मुख वाले शेषनाग जी भी इस युद्ध का पूरा-पूरा वर्णन कर पाने में समर्थ नहीं हैं ।

रामा दल और रावण दल  का युद्ध दो महीने से अधिक समय तक चला था । युद्ध शुरू होने से अंत तक कुल सतासी दिन लगे थे । बीच में कुल मिलाकर पन्द्रह दिन युद्ध विराम था । युद्ध विराम वाले दिनों को निकाल देने पर कुल बहत्तर दिन बचते हैं । इस प्रकार रामायण में रामा दल और रावण दल  का युद्ध कुल बहत्तर दिन अर्थात दो महीने और बारह दिन तक चला था । इससे ही इस युद्ध की भीषणता और विकरालता का थोड़ा अनुमान लगाया जा सकता है ।

यह युद्ध दुनिया का एक मात्र ऐसा युद्ध है जो दो महीने से अधिक समय तक चला और जिसमें एक पक्ष से कोई जन हानि नहीं हुई ।

जितने भी वानर-भालु युद्ध में मारे गए थे उन्हें भगवान राम ने जीवित कर दिया था । इस प्रकार रामादल से कोई जन हानि नहीं हुई थी । इसलिए ही ग्रंथों में राम जी को ‘मृतवानरजीवनः’ अर्थात मरे हुए वानरों को जीवन प्रदान करने वाले कहकर स्तुति की गई है ।

 

।। जय श्रीराम ।।

श्रीरामचरितमानस में चमगादड़ से उत्पन्न होने वाली बीमारी अथवा कोबिड-१९ का उल्लेख नहीं है

जो सत्य न हो उसे सत्य बताकर प्रचारित और प्रसारित करना ठीक नहीं माना गया है । यह भी पाप के श्रेणी में आता है । लेकिन कुछ लोग अज्ञानता बस अथवा जानबूझकर भ्रामक प्रचार करते रहते हैं । जो कि गलत है ।

कुछ समय पूर्व कुछ लोग प्रचारित कर रहे थे कि पुराणों में कोरोना वायरस और इससे सम्बंधित बीमारी का वर्णन है । अभी हाल में श्रीरामचरितमानस के उत्तरकाण्ड के कुछ चौपाइयों और दोहों के जरिये कुछ लोग भ्रामक प्रचार कर रहे हैं ।

कहते हैं कि एक बार किसी ने उड़ाया कि कौआ कान लेकर जा रहा है । बस देखते ही देखते कौए के पीछे भीड़ लग गई । जब किसी बुजुर्ग ने पूछा कि क्या बता है तो लोगों ने बताया कि आपको पता नहीं कौआ कान लेकर जा रहा है । तब उस बुजुर्ग व्यक्ति ने कहा कि सब लोग अपना-अपना कान तो देखो कि तुम्हारे पास कान है कि नहीं । सबने देखना आरंभ किया तो सबका कान सबके पास ही था । तब सब लोग एक दूसरे का मुँह देखने लगे और बोले कि हम लोग तो नाहक में कौए के पीछे पड़े थे । अपना कान तो अपने पास ही है । अर्थात अफवाहों पर ध्यान न देकर समझदारी से काम लेना चाहिए ।

श्रीरामचरितमानस जी के उत्तरकाण्ड के एक चौपाई में चमगादड़ शब्द और दूसरे में कफ, छातीजार और ज्वर (बुखार) आदि शब्द देखकर, बिना यह समझे-बूझे कि यह किस संदर्भ में कहा गया है और इन सबका यहाँ वास्तविक अर्थ क्या है, किसी ने इसे कोरोना महामारी-कोविड-१९ से जोड़कर प्रचारित कर दिया । इससे कई लोग अवश्य ही गुमराह हुए होंगे ।

जबकि यहाँ पर कही हुई बात का कोरोना महामारी-कोविड-१९ से कोई सम्बंध नहीं है । निम्नलिखित चौपाई-

“सब कै निंदा जे जड़ करहीं । ते चमगादड़ होइ अवतरहीं” ।।

का केवल इतना ही अर्थ है कि जो मूर्ख व्यक्ति मनुष्य शरीर पाकर भी सदा सबकी निंदा में रत रहता है वह अगले जन्म में चमगादड़ का जन्म पाता है ।

श्रीरामचरितमानस जी में निंदा करने को बहुत बड़ा पाप बताया गया है । और जो व्यक्ति सदा पाप कर्म में ही लगा रहेगा उसकी मानसिक स्थिति क्या होगी ? क्या वह स्वयं सुखी रह पायेगा ? उसका अधिक समय तो इसी में बर्बाद होता रहेगा कि किसके बारे में क्या-क्या कहें ? जिससे उसकी ज्यादा से ज्यादा निंदा हो-बदनामी हो । निंदा की सामग्री जुटाने में स्वयं मानसिक रूप से परेशान रहकर दूसरे को भी परेशान करने वाला व्यक्ति चमगादड़ बनता है ।

इसी प्रकार श्रीरामचरितमानस जी के उत्तरकाण्ड में मानसिक रोगों का वर्णन है । जिनका कोरोना से कुछ लेना देना नहीं है । सामान्यतः दो तरह के रोग होते हैं । एक शारीरिक रोग और दूसरा मानसिक रोग । शारीरक रोग थोड़ा जल्दी समझ में-पकड़ में आ सकता हैं लेकिन मानसिक रोग जल्दी पकड़ में नहीं आता है ।

सारा संसार अर्थात प्रत्येक व्यक्ति मानसिक रोगों से पीड़ित होता है । और यह रोग ऐसा है कि रोगी को पता भी नहीं चल पाता कि वह रोगी है । साधारण व्यक्ति की क्या कहें बड़ें-बड़े मुनि भी इन रोगों से मुक्त नहीं हो पाते ।

श्रीरामचरितमानस जी में शारीरिक रोगों जैसे वायु जनित रोग, कफ जनित रोग, पित्त जनित रोग, सन्निपात, दाद, खुजली, क्षय रोग, श्वेत व गलित कोढ़, डमरुआ-शरीर को टेढ़ा कर देने वाला रोग, नेहरुआ-नसों को कमजोर कर देने वाला रोग, उदर वृद्धि, त्रिज्वरी-तीसरे दिन आने वाला बुखार, जीर्ण और अजीर्ण ज्वर आदि का उल्लेख मानसिक रोगों के संदर्भ में किया गया है । जिनका कोविड-१९ से कोई सम्बंध नहीं है ।

इस प्रकार  श्रीरामचरितमानस जी में न ही चमगादड़ से फैलने वाली किसी बीमारी का उल्लेख है और न ही कोबिड-१९ का । अतः किसी को भी गुमराह नहीं होना चाहिए ।

 

।। जय श्रीराम ।।

श्रीअध्यात्म रामायण : पारायण और लाभ

 वेदव्यास जी के नाम से कौन परिचित नहीं होगा ? महाभारत तथा पुराणों आदि के रचनाकार वेदव्यास जी हैं । श्रीमद्भगवद्गीता के रचनाकार भी वेद व्यास जी ही हैं । इतना ही नहीं  वेदव्यासजी भगवान के चौबीस अवतारों में से एक हैं । इसलिए ही इन्हें भगवान वेद व्यास भी कहा जाता है ।

श्रीमद्भगवद्गीता को  कहा भगवान श्रीकृष्ण ने है और लिखा वेद व्यास जी ने है । वस्तुतः श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत का एक अंश है । ठीक इसी तरह अध्यात्म रामायण को कहा शंकर जी ने है और लिखा वेद व्यास जी ने है । वस्तुतः अध्यात्म रामायण श्रीव्रह्मांड पुराण का एक अंश है ।

 वेदव्यास जी रामायण के प्राचीनतम लेखकों में से एक हैं । वेदव्यास जी ने श्रीराम कथा का अपने कई ग्रंथों में बड़ा ही सुंदर गायन किया है । जिसमें से अध्यात्म रामायण उल्लेखनीय है । यह बड़ा ही मनमोहक है ।

  अध्यात्म रामायण मूलतः संस्कृत भाषा में लिखा है । लेकिन यह हिंदी अनुवाद के साथ भी उपलब्ध है । इस रामायण की अद्भुत महिमा कही गई है ।

  इसके पारायण से भगवान राम की कृपा प्राप्ति होती है तथा भगवान श्रीराम के चरणों में भक्ति प्राप्ति होती है ।

 लोक और परलोक में कल्याण होता है । पुत्र आदि समस्त मनोकामनाओं की प्राप्ति होती है । श्रद्धा और विश्वास  के अनुसार फल प्राप्त होता है ।

  गीता प्रेस से अनुवाद सहित अध्यात्म रामायण खरीदकर पारायण किया जा सकता है और लाभ का भागी बना जा सकता है ।

  भगवान श्रीराम के चरणों में भक्ति को जगाने वाला यह बहुत ही उत्तम और भक्तों के लिए अवश्यमेव पठनीय ग्रंथ है ।

।। जय श्रीराम ।।