प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को व्रत रखना चाहिए

जैसे एकादशी व्रत करना चाहिए वैसे ही प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को व्रत करना चाहिए । प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को भोजन वर्जित है । ग्रंथों के अनुसार प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को भोजन नहीं करना चाहिए और व्रत रखना चाहिए ।

श्रीराम नवमी अर्थात चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी का विशेष महत्व है । इसलिए सभी को श्रीराम नवमी को उपवास-व्रत रखना चाहिए । यह वर्णन सनातन धर्म के कई ग्रंथों में मिलता है ।

इस प्रकार भगवान श्रीराम के भक्तों को केवल राम नवमी को ही नहीं बल्कि प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को व्रत रखना चाहिए ।

 ।। जय श्रीराम ।।

प्रगटे राम रघुवीरा, अवधपुर बीथिन में भीरा

https://sriramprabhukripa.blogspot.com/2024/04/blog-post_7.html

भगवान को  प्राप्त करना बहुत ही सरल है

भगवान को  प्राप्त करना बहुत ही सरल है । कहीं जाने की या दर-दर ठोकर खाने की भी जरूरत नहीं है । कई काम भी नहीं करना हैं । केवल और केवल एक काम करना हैं । और भगवान घर बैठे प्राप्त हो जायेंगे ।

जैसे कोई रोग हो जाए तो जितने डॉक्टर के पास जाओ उतनी ही तरह-तरह की दवाएं और हिदायतें दी जाती हैं । वैसे ही भगवान को प्राप्त करने के नाना तरीके हैं । और लोग बताते भी रहते हैं । लेकिन हम सिर्फ एक सरलतम तरीका बता रहे हैं ।

भगवान छल-कपट से और छल-कपट करने वालों से बहुत दूर रहते हैं । और छल-कपट रहित निर्मल मन वालों के बहुत पास रहते हैं । श्रीराम जी कहते हैं कि निर्मल मन वाले ही हमें पा सकते हैं । दूसरे नहीं ।

बिना मन निर्मल किये ही हम तीर्थों के चक्कर लगाते फिरते हैं । साधु-महात्माओं के दर्शन और आशीर्वाद लेते रहते हैं । प्रवचन सुनते रहते हैं । मंदिर जाया करते हैं । घर में भी पूजा-पाठ करते रहते हैं । यथा-शक्ति दान-दक्षिणा भी देते रहते हैं । व्रत-उपवास भी करते रहते हैं । लेकिन भगवान नहीं मिलते ।  क्योंकि हमारे पास निर्मल मन नहीं है ।

यही सबसे बड़ी समस्या है । हम सब भगवान को तो पाना चाहते हैं । लेकिन बिना मन निर्मल किये । जो कि सम्भव नहीं है । अपना मन ही निर्मल नहीं है । तो भगवान कैसे मिलें ?

अपना प्रतिबिम्ब भी देखना हो तो निर्मल यानी साफ-सुथरा दर्पण की आवश्यकता होती है । यदि दर्पण साफ-सुथरा न हो तो खुद अपना प्रतिबिम्ब भी नहीं दिखाई पड़ता । तब गंदे मन रुपी दर्पण से भगवान कहाँ दिखेंगे ? यदि दर्पण में अपनी छवि बसानी यानी देखनी है तो दर्पण को स्वच्छ करना ही होगा । ठीक ऐसे ही मन में श्रीराम को बसाने के लिए मन स्वच्छ करना ही पड़ेगा ।

दर्पण स्वच्छ हो तो कुछ करना थोड़े पड़ता है । जैसे दर्पण के सामने गए प्रतिबिम्ब उसमें आ गया । भगवान तो हर जगह हैं । कण-कण में हैं । कहीं जाना भी नहीं है । हम हमेशा भगवान के सामने पड़ते हैं । लेकिन भगवान हमारे मन रुपी दर्पण में नहीं आते, नहीं दिखते । क्योंकि अपना मन रुपी दर्पण निर्मल नहीं है । अतः यदि हमारा मन निर्मल हो जाए तो हमें भगवान को पाने के लिए कुछ करना थोड़े पड़ेगा । भगवान खुद हमारे मन में बस जायेंगे । आ जायेंगे और हमें दिखने लगेंगे ।

भगवान को रहने के लिए जगह की कमी थोड़े है । लेकिन भक्त के मन में, हृदय में रहने का मजा ही दूसरा है । इसलिए भगवान निर्मल मन वाले को तलासते रहते हैं । जैसे कोई निर्मल मन मिला उसमें बस जाते हैं ।

अतः भगवान को पाने के लिए हमें कुछ नहीं करना है । सिर्फ हमें अपने मन को निर्मल बना लेना है । सब छोड़कर हम अगर यह काम कर ले जाएँ तो भगवान हमें मिल जाएंगे । भगवान खुद कहते हैं-

‘निर्मल मन सो जन मोहि पावा । हमहिं कपट छल छिद्र न भावा’ ।।

———

शत प्रश्नोत्तरी-सनातन हिंदू धर्म और भगवान से जुड़े प्रश्न और उनके उत्तर

                                                                             शत प्रश्नोत्तरी 

                        सनातन हिंदू धर्म और भगवान से जुड़े महत्त्वपूर्ण प्रश्न और उनके उत्तर

 

                                                                                    प्रस्तुति-

                                                                             श्रीराम कृपाकांक्षी दीन संतोष 

______________________________

 

शत प्रश्नोत्तरी नाम से संग्रहीत इस पुस्तक में सनातन हिंदू धर्म से जुड़े सौ  महत्वपूर्ण प्रश्न और उनके उत्तर दिए गए हैं । इसमें मनुष्य-मात्र के मन में उठने वाले कई प्रश्नों को स्थान देने का प्रयास किया गया है ।

यह प्रश्नोत्तरी भगवान और सनातन हिंदू धर्म से जुड़े कई प्रश्न व रहस्य को सरल शब्दों में उदघाटित करती है । इससे यह सभी के लिए उपयोगी होगी ।

यदि सनातन धर्म और भगवान से जुड़ी किसी की भी किसी जिज्ञासा का इस प्रश्नोत्तरी से  समाधान होता है तो यही इसके लेखन की सफलता होगी ।

                                                                                  -श्रीराम कृपाकांक्षी दीन संतोष

____________________________________

१.    सनातन धर्म क्या है ?

वेद धर्म ही सनातन धर्म है । यह आदि-अंत रहित शास्वत धर्म है । इसे ही हिंदू धर्म और आर्य धर्म भी कहा जाता है । वेद, पुराण उपनिषद और रामायण आदि में जिस धर्म का वर्णन है वह सनातन धर्म है ।

२.    सनातनधर्म के प्रवर्तक कौन हैं ?

यह अनादि धर्म है । यह शास्वत धर्म है । इसका न आदि है न अंत है । जिस धर्म को कोई शुरू करता है उसे उस धर्म का प्रवर्तक कहा जाता है । प्रवर्तक के पहले उस धर्म (जिसे प्रवर्तक शुरू करता है ) का अस्तित्व नहीं रहता है । लेकिन सनातनधर्म सदा चलता ही रहता है इसलिए इसका कोई प्रवर्तक नहीं है । सनातन धर्म भगवत स्वरूप ही है ।

३.    सनातन धर्म में कितने भगवान हैं ?

भगवान तो एक ही हैं । लेकिन इनके कई स्वरूप हैं ।

४.    भगवान के कितने स्वरूप हैं ?

भगवान के एक दो नहीं अनंत स्वरूप हैं ।

५.    सनातन धर्म में अवतार किसे कहा जाता है ?

वस्तुतः भगवान एक ही हैं । लेकिन समय-समय पर जैसे रूप, गुण और लीला की जरूरत होती है उसके अनुरूप भगवान एक नया रूप बना लेते हैं जिसे अवतार कहा जाता है ।

६.    देवता और भगवान में क्या अंतर है ? दोनों में कौन श्रेष्ठ होता है ?

देवता और भगवान में कई अंतर हैं । देवता भगवान से ही उत्पन्न होते हैं । देवता श्रेष्ठ और भगवान सर्वश्रेष्ठ होते हैं ।

७.    क्या भूत होते हैं ?

सनातन धर्म के अनुसार भूत होते हैं । इन्हें उपदेवता समझना चाहिए । राक्षसों को भी उपदेवता कहा जाता है ।

८.    भगवान राम और भगवान श्रीकृष्ण में सबसे पहले किसका अवतार होता है ?

पहले भगवान राम का और बाद में भगवान श्रीकृष्ण का अवतार होता है । और भगवान राम तथा भगवान श्रीकृष्ण के अवतार में लाखों वर्ष का अंतर होता है । लेकिन कई लोग भ्रम के कारण स्वयं भ्रमित रहते हैं और दूसरों को भी भ्रमित करते हैं ।

९.    भगवान राम और भगवान श्रीकृष्ण में कौन बड़ा है ?

भगवान राम और भगवान श्रीकृष्ण में मूलतः भेद नहीं है । लीला, रूप और गुण में थोड़ी भिन्नता दिखती है । लेकिन दोनों एक हैं । कुछ लोग भ्रम वश अंतर समझते हैं । जो ठीक नहीं है और सनातन धर्म के सिद्धांतों के विपरीति है ।

१०.  किस सिद्धांत, तथ्य अथवा बिचार को सही समझना चाहिए ?

वेद अनुमोदित सिद्धांत, तथ्य अथवा बिचार मानने योग्य हैंं । वेद-पुराण, उपनिषद, श्रीरामचरितमानस और गीता जी के सिद्धांत ही अनुसरणीय हैं ।

११.  भक्त और अभक्त किसे कहते हैं ?

जो अपने को भगवान से जोड़कर रखता है वह भक्त होता है । और जो अपने को भगवान से जोड़कर नहीं रखता वह अभक्त होता है ।

१२.   क्या भगवान भक्त और अभक्त में भेद करते हैं ?

भगवान समदर्शी हैं । भक्त और अभक्त दोनों भगवान के ही हैं । फिर भी भगवान भक्त का पक्ष लेते हैं । भगवान भक्त की मदद करते हैं ।

१३.  भगवान से कैसे जुड़ें ?

संसार में भगवान से जुड़ना थोड़ा कठिन है । संसार से जुड़ना आसान होता है । लेकिन संत, भक्त और ग्रंथ आदि की मदद से भगवान से जुड़ा जा सकता है । कोई सम्बंध जोड़कर भगवान से जुड़ा जा सकता है ।

१४.  किस ग्रंथ के माध्यम से भगवान से जुड़ सकते हैं ?

श्रीरामचरितमानस, श्रीविनयपत्रिका, श्रीमद्भागवत पुराण आदि के माध्यम से भगवान से जुड़ सकते हैं ।

१५.     भगवान कल्कि का अवतार कब होगा ?

भगवान कल्कि के अवतार में अभी बहुत समय शेष है । पुराणों के अनुसार कलियुग के अंत में भगवान कल्कि का अवतार होना सुनिश्चित है । कल्कि भगवान अवतार लेकर सनातन धर्म की मर्यादा की स्थापना करेंगे और इसके बाद सतयुग आ जाएगा ।

१६. भगवान समदर्शी हैं तो भक्तों का पक्ष क्यों लेते हैं ?

भक्त भगवान से जुड़े होते हैं । भगवान को अपना मानते हैं । भगवान को पुकारते हैं । भगवान पुकारने वाले की मदद करते हैं । अभक्त में अपना बल और भक्त में भगवान का ही बल होता है इसलिए समदर्शी होकर भी भगवान पुकारने वाले भक्त की मदद करते हैं ।

१७. क्या भाग्य बदल सकती है ?

हाँ । भगवान की कृपा से भाग्य बदल सकती है ।

१८.  भाग्य और कर्म में कौन श्रेष्ठ है ?

भाग्य और कर्म दोनों श्रेष्ठ हैं । भाग्य और कर्म एक दूसरे के पूरक होते हैं ।

१९. भजन करने का क्या फल होता है ?

भजन करने का फल अवश्य होता है बशर्ते भजन प्रेम और विश्वास से किया जाय । भजन से भगवान को प्राप्त किया जा सकता है ।

२०. जीवन में दुःख दूर करने के लिए क्या करना चाहिए ?

भगवत शरणागति । यह उत्तम साधन है । प्रेम और विश्वास से भजन करने वाले सुखी रहते है ।

२१.  संत लोग भजन करते हैं । क्या उनके जीवन में दुःख नहीं होता है ।

संत के जीवन में जितना सुख होता है उतना सुख और किसी के जीवन में नहीं होता । सुख का मतलब वाह्य सुख से नहीं आत्मानंद से होता है ।

२२.  क्या भजन करने वाले के जीवन में कभी दुःख नहीं आता है ?

सुख और दुःख सबके जीवन में आते हैं । लेकिन जो भगवान से जुड़े होते हैं उनके जीवन में दुःख बाद में भगवान का अनुग्रह पहले आ जाता है । इससे जीवन आसानी से चलता जाता है ।

२३.  संसार में लोग दुखी क्यों रहते हैं ?

भगवान से दूरी रखने के कारण ही लोग दुखी होते है । कई लोग भूंखे सोते हैं । न खाने को भोजन और न पहनने को कपड़ा मिलता है । लेकिन किसी साधु को कभी भोजन और वस्त्र की कमी नहीं रहती । साधू लोग भूंखे नहीं सोते हैं । ठाठ से रहते हैं । जो भगवान से जुड़ें हैं और प्रेम से भजन करते हैं उनके लिए ‘रोटी लूगा नीके राखै’ लागू होता है । यह रामजी की व्यवस्था है ।

२४.  क्या बिना कर्तव्य पालन किए भजन सफल हो सकता है ?

जीवन में कर्तव्य का निर्वहन बहुत जरूरी होता है । निष्ठापूर्वक कर्तव्य पालन करने से ही भजन सफल होता है ।

२५.  यदि जीवन में सत्य का अभाव है तो क्या भजन फलदाई होगा?

यदि जीवन में सत्य का अभाव है तो भजन फलदाई नहीं होगा । जीवन में सत्य बहुत जरूरी है । सत्य और भजन एक दूसरे के पूरक है । असत्य भजन में बाधक है ।

२६.   यदि जीवन में माता-पिता का सम्मान नहीं है तो क्या पूजा-पाठ का फल मिलता है ?

माता-पिता आदि गुरजनों का सम्मान जरूरी है । माता-पिता को कष्ट देने वालों के पूजा-पाठ, दान, पुण्य आदि सार्थक नहीं होते हैं ।

२७.  मुक्ति क्या है ?

जीवन-मरण के चक्र से छूटकर भगवान को प्राप्त कर लेना ही मुक्ति है ।

२८.  मुक्ति प्रदाता कौन है ?

भगवान मुक्ति प्रदाता हैं । देवी और देवता मुक्ति नहीं देते ।

२९.  देवी और देवता क्या दे सकते हैं ?

देवी और देवता भाग्य से अधिक नहीं दे सकते हैं ।

३०.   भगवान को क्या प्रिय है ?

प्रेम ।

३१.  भगवान को क्या अप्रिय है ?

        अंहकार ।

३२.  भगवान राक्षसों का विनाश क्यों करते हैं ?

भगवान राक्षसत्व का विनाश करते हैं । राक्षसों का नहीं । कई राक्षस भगवान के भक्त भी होते हैं ।

३३.  राक्षस कौन होता है ?

राक्षस का मतलब केवल भारी भरकम शरीर वाले निर्दयी प्राणी से नहीं होता है । जिसके अंदर राक्षसत्व आ जाए वही राक्षस होता है ।

३४.  राक्षसत्व क्या है ?

माता-पिता और भगवान को न मानना और साधु-संतों का निरादर करना तथा दूसरे के धन और स्त्री आदि पर नजर रखना ही राक्षसत्व है ।

३५.  वर्णाश्रमधर्म किसकी देन है ?

ग्रंथों के अनुसार वर्णाश्रमधर्म भगवान की देन है । उदाहरण के लिए गीता में भगवान कहते हैं कि वर्णाश्रमधर्म मैंने ही बनाया है ।

३६.  वर्णाश्रमधर्म में वर्णधर्म का निर्धारण किससे होता है ?

ग्रंथों के अनुसार वर्णाश्रमधर्म में वर्णधर्म का निर्धारण पूर्व जन्म के कर्म से होता है ।

३७.  ग्रंथों के अनुसार कलियुग में वर्णाश्रमधर्म की क्या स्थिति होती है ?

ग्रंथों के अनुसार कलियुग आने पर धीरे-धीरे वर्णाश्रमधर्म क्षीण होता जाता है और समाप्त हो जाता है ।

३८. आश्रमधर्म क्या है ?

सनातन धर्म में चार आश्रम होते हैं । व्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और सन्यास । इन चारों आश्रम के अपने-अपने धर्म-नियम हैं जिन्हें आश्रम धर्म कहा जाता है ।

३९. ग्रंथों के अनुसार कलियुग में आश्रम धर्म की क्या स्थिति होती है?

आश्रम धर्म भी धीरे-धीरे क्षीण होकर लगभग समाप्त हो जाता है ।

४०. क्या भगवान को प्राप्त करने के लिए सन्यास धर्म का पालन जरूरी है ?

नहीं ।

४१. क्या गृहस्थ को भी भगवान मिल सकते हैं ?

हाँ । गृहस्थ को भगवान जल्दी मिल जाते हैं बशर्तें गृहस्थाश्रम में रखकर भगवान से जुड़कर रहा जाय और उनसे प्रेम किया जाय । भगवान की शरणागति ले ली जाय तो कृपा मिल जाती है ।

४२. किस पर भगवान जल्दी कृपा करते हैं ?

शरणागत भक्त पर ।

४३.  धर्म क्या है ?

धर्म की कोई एक परिभाषा नहीं है । इसके कई स्वरूप हैं । इसका निर्धारण देश,काल और परिस्थिति पर भी निर्भर करता है । फिर भी सनातन परंपरा में परहित, सत्य, अहिंसा और दया को धर्म कहा जाता है ।

४४.  क्या पूजा-पाठ धर्म है ?

पूजा-पाठ धर्म की क्रिया है ।

४५.  अधर्म क्या है ?

इसके भी कई स्वरूप हैं । फिर भी परपीड़ा, झूठ, निंदा, और हिंसा को ग्रंथों ने अधर्म कहा है ।

४६.  भक्त का प्रमुख लक्षण क्या होता है ?

सरलता और दीनता ।

४७.  भक्ति क्या है ?

भक्ति के कई स्वरूप हैं । फिर भी सरलता और दीनता को भक्ति का परिमाण समझना चाहिए ।

४८.  भक्ति की सबसे उच्च अवस्था क्या है ?

चर-अचर सबमें श्रीसीताराम के दर्शन करना ।

४९.  भगवान के भजन-पूजन का अधिकार किस-किसको है ?

श्रीरामचरितमानसजी के अनुसार भगवान के भजन-पूजन का अधिकार चर-अचर, स्त्री, पुरुष, नपुसंक, इत्यादि सभी को है । कोई भी हो, किसी भी देश-जाति का हो सबको राम से जुड़कर अपना परम कल्याण करने का अधिकार है ।

५०.  मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि क्या है ?

भगवान श्रीसीतारामजी के चरणों में प्रेम मनुष्य जीवन की सबसे बड़ी उपलब्धि है यदि यह उपलब्धि न मिली तो मनुष्य जीवन निरर्थक माना जाता है । हर किसी को अपने जीवन की सर्वोत्तम उपलब्धि प्राप्त करने का अधिकार है और इसलिए हर किसी को भगवान राम से जुड़ने का प्रयास करना चाहिए ।

५१. शब्द व्रह्म किसे कहते हैं ?

‘राम’ को ही शब्द व्रह्म कहा जाता है (-स्कंद पुराण ) ।

५२. तारक व्रह्म किसे कहा गया है ?

सनातन धर्म में भगवान राम को ही तारक व्रह्म कहा गया है ।

५३. एक राम नाम विष्णु सहस्त्र नाम के बराबर होता है । इसका उल्लेख कहाँ मिलता है ?

एक राम नाम विष्णु सहस्त्र नाम के बराबर होता है । इसका उल्लेख श्रीरामचरितमानस, श्रीराम रक्षा स्त्रोत और पद्म पुराण इत्यादि ग्रंथों में मिलता है ।

५४ भगवान श्रीराम का वर्णन सनातन धर्म के किन-किन ग्रंथों में मिलता है ।

भगवान श्रीराम का वर्णन वेद-उपनिषद, पुराण, संहिता, रामायण, महाभारत और श्रीरामचरितमानस इत्यादि सद्ग्रन्थों में मिलता है ।

५५.  भगवान श्रीराम की महिमा का वर्णन किन-किन प्राचीन ऋषियों ने किया है ?

भगवान श्रीराम की महिमा का वर्णन श्रीसनत्कुमार, श्रीवाल्मीकि, श्रीवशिष्ठ, श्रीविश्वामित्र, श्रीवेद व्यास आदि प्राचीन ऋषियों ने अपने-अपने ग्रंथों में किया है ।

५६. भगवान वेदव्यास रचित रामायण किस नाम से प्रसिद्ध है ?

  भगवान वेद व्यास द्वारा रचित रामायण अध्यात्म रामायण के नाम से प्रसिद्ध है ।

५७. भगवान के सभी नामों में सबसे श्रेष्ठ नाम कौन सा है ?

सद्ग्रंथो के अनुसार भगवान के एक से बढ़कर एक श्रेष्ठ नाम हैं । जिसमें राम नाम सर्वश्रेष्ठ है । देवर्षि नारद को भगवान ने ऐसा वरदान भी दिया है ।

५८. संसार सागर से तरने के लिए क्या करना चाहिए ।

भगवान राम की सेवा-भजन के बिना संसार से तरना नहीं होता है । बड़े-बड़े ऋषि-मुनि, सिद्ध, त्यागी और तपस्वी भी राम जी के भजन से ही इस संसार सागर से तरते हैं- तरहिं न बिनु सेए मम स्वामी । राम नमामि नमामि नमामी ।।

५९. देवी और देवता के उपासकों की मुक्ति कैसे होती है ?

    देवी और देवता के उपासकों की मुक्ति भी राम भजन से होती है ।

६०. वेदों और पुराणों की रचना किसने किया है ?

   वेद शास्वत ग्रंथ हैं । ये भगवान से ही प्रगट होते हैं । अतः इनकी रचना कोई नहीं करता । इसी तरह पुराण भी शास्वत ग्रंथ हैं ।

 ६१. वेद और पुराण शास्वत ग्रंथ हैं तो ऐसा क्यों कहा जाता है कि इनकी रचना श्रीवेद व्यास जी ने किया है ? 

 वेद और पुराण श्रवण परंपरा से एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी में स्थांतरित होते रहते हैं । लेकिन कलियुग में यह योग्यता क्षीण हो जाती है । कलियुग के लोगों को भी वेदों और पुराणों का लाभ मिल सके इस उद्देश्य से ही श्रीवेद व्यास जी वेदों और पुराणों को लिपि बद्ध कर देते हैं ।

६२. क्या वेद और पुराण का ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता है ?

वेद और पुराण का ज्ञान देवलोक में इसके मूल स्वरूप में सदैव विद्यमान रहता है । इसलिए वेद और पुराण का ज्ञान कभी नष्ट नहीं होता है । पृथ्वी पर इनके मूल स्वरूप में कालांतर में थोड़ा परिवर्तन भले ही आ सकता है ।

६३. हम सब भगवान के अंश हैं । इसलिए मैं व्रह्म हूँ अथवा मैं भगवान हूँ ऐसा मानना क्या सही नहीं है ?

हम सब जीव हैं । हम सबके अंदर जो चेतन तत्व है वह भगवान का ही अंश है । इस प्रकार हम सब भगवान के अंश हैं लेकिन भगवान नहीं है । इसलिए यह भाव सही नहीं है कि मैं भगवान हूँ । सही भाव यह है कि मैं भगवान का सेवक हूँ शेष संसार चर-अचर मेरे भगवान का स्वरूप है- ‘मैं सेवक सचराचर रूप स्वामि भगवंत’ । प्रश्न संख्या ८३ भी देखिए ।

६४. कई लोग कहते हैं कि हम भगवान को नहीं मानते केवल प्रकृति को मानते हैं  । इनका अध्यात्मिक कल्याण कैसे होता है ?

यदि प्रकृति को भगवत स्वरूप मानकर पूजा किया जाय तो कल्याण होता है । लेकिन केवल प्रकृति को मानना और भगवान को न मानना गलत है । इससे अध्यात्मिक कल्याण नहीं होता । क्योंकि प्रकृति भगवान की आदि पत्नी है । अब किसी पतिव्रता पत्नी को तो माना जाय लेकिन उसके पति को न माना जाय तो कल्याण कैसे होगा ?

६५. भगवान को आदि गृहस्थ क्यों कहा जाता है ?

भगवान आदि गृहस्थ हैं क्योंकि प्रकृति भगवान की आदि पत्नी है । ग्रंथों में भगवान राम को आदि गृहस्थ कहकर स्तुति की गई है ।

६६. कुछ लोग सनातन धर्म के सद्ग्रंथो को भी माइथोलोजी समझते हैं । क्या यह सही है ?

यह अज्ञानता है । यह पश्चात सभ्यता-संस्कृति से उद्भूत शब्द हैं । जहाँ कॉमिक (काल्पनिक) करक्टेरस का बोलबाला है । उनके पास करोड़ो-अरबों वर्षों के सभ्यता-संस्कृति की थाती-धरोहर नहीं है । वहाँ त्याग, सत्य, सदाचार, तपस्या नियम और संयम पर आधारित और जीवन के गूढ़ रहस्यों को समझाने वाले वेद-पुराण, उपनिषद, रामायण, महाभारत इत्यादि जैसे सदग्रंथों का अभाव है । इसलिए उन लोगों को राजा हरिश्चंद्र, राजा शिवि, राजा रघु और महर्षि दधीच इत्यादि जैसे हमारे पूर्वज उनकी सोच के अनुरूप कॉमिक करेक्टेर ही लगते हैं और अज्ञानियों ने उनके माइथोलोजी को यहाँ के ग्रंथों पर भी थोप दिया है ।

६७. कलियुग में सबसे ज्यादा नुकसान क्या होता है ?

कलियुग में सबसे ज्यादा नुकसान यही होता है कि लोगों की बुद्धि ही उनसे रूठ जाती है । इससे सही गलत और गलत सही लगने लगता है । कलियुग के लोग ठूठे को हरा और हरे को ठूठा समझने लगते हैं- ‘रामदास कलिकाल में मति सबकी गै रूठ । ठूठे को समुझत हरा हरे पेड़ को ठूठ’ ।।

६८. कलियुग का सबसे बड़ा लाभ क्या है ?

   जो फल पहले के युगों में तपस्या, यज्ञ, पूजा आदि से मिलता था वो कलियुग में केवल ‘राम’ नाम से मिल जाता है । यही इसकी सबसे बड़ी विशेषता कही गई है ।

६९. कलियुग कब समाप्त होगा ?

कलियुग का कुल समय चार लाख बत्तीस हजार वर्ष कहा गया है । जिसमें से अभी बत्तीस हजार वर्ष भी नहीं बीते हैं ।

७०. कलियुग बढ़ रहा है । इसका अनुमान कैसे लगाया जाय ?

जब गौ, गंगा, गोविंद और गायित्री का अनादर होने लगे, सद्ग्रंथो को माइथोलोजी समझने वाले बढ़ने लगें, माता-पिता, साधु-संत का अनादर होने लगे, स्त्रियां आभूषण और वस्त्र से क्षीण होने लगें (श्रीविष्णु पुराण), कम आयु में ही बाल सफेद होने लगे, छल-कपट और झूठ बढ़ने लगे तो समझना चाहिए कि कलियुग बढ़ रहा है ।

७१. कलियुग में लोगों की आयु कितनी कही गई है ।

कलियुग में लोगों की आयु सौ वर्ष कही गई है । जो कलियुग के बढ़ने के साथ घटती रहती है । धीरे-धीरे यह पचास वर्ष और अंततः मात्र बीस वर्ष ही रह जायेगी ।

७२. कलियुग बढ़ने पर विवाह आदि सनातन संस्कारों की क्या स्थिति होगी ?

कलियुग बढ़ने पर सभी सनातन संस्कार धीरे-धीरे क्षीण होते जायेंगे । धीरे-धीरे लोग विवाह आदि से भी विमुख हो जायेंगे ।

७३. भवसागर कहाँ स्थित है ?

  भवसागर नाम का कोई भौतिक सागर कहीं नहीं है । इस संसार को ही भवसागर कहा जाता है । और जन्म-मरण से छूटने को भवसागर से पार होना कहा जाता है ।

७४. सनातन धर्म में एक चतुर्युगी का क्या अर्थ होता है ।

चार युगों सतयुग, त्रेता, द्वापर और कलियुग के कुल समय को एक चतुर्युगी कहा जाता है । कलियुग चार लाख बत्तीस हजार वर्ष का होता है । इसके दोगुने समय का द्वापर, तीन गुने समय का त्रेता और चार गुने समय का सतयुग होता है । सबका योग करने पर एक चतुर्युगी में कुल वर्षों की संख्या प्राप्त हो जाती है । इसके लिए हम एक आसान तरीका भी बता रहे हैं । कलियुग के समय का दस गुना करने पर एक चतुर्युगी में कुल वर्षों की सख्या प्राप्त हो जाती है ।

७५. सनातन धर्म में एक कल्प का क्या मतलब होता है ?

एक हजार चतुर्युगी को एक कल्प कहते हैं । इस प्रकार एक कल्प में सतयुग एक हजार बार , त्रेता एक हजार बार , द्वापर एक हजार बार , और कलियुग भी एक हजार बार आता है ।

कलियुग के कुल समय का दस हजार गुना करने पर एक कल्प में कुल वर्षों की संख्या प्राप्त हो जाती है ।

७६. एक कल्प में त्रेता युग एक हजार बार आता है । तो क्या एक कल्प में भगवान राम का अवतार एक हजार बार होता है ?

भगवान राम का अवतार एक कल्प में एक बार ही होता है ।

७७. कुछ लोग कहते हैं कि भगवान श्रीराम कम कला के और भगवान श्रीकृष्ण अधिक कला के हैं ? क्या यह सत्य है ?

यह सत्य नहीं है । यह ऐसा कहने वालों की हठधर्मिता मात्र है । भगवान श्रीराम अकल भी हैं और सकल भी हैं । भगवान राम कलानिधान हैं । सनत्कुमार संहिता, विनयपत्रिका इत्यादि ग्रंथों में  इस तथ्य का वर्णन है । अध्यात्म रामायण और स्कंद पुराण को भी देखना चाहिए ।

७८. क्या सनातन धर्म केवल भारत वर्ष का धर्म है ?

सनातन धर्म समस्त प्राणीमात्र का एवं देश और काल की सीमा से परे धर्म है । और इसके सिद्धांतों को मानने से ही मानवता का तथा संसार के अन्य सभी प्राणियों का तथा इस व्रह्मांड का कल्याण हो सकता है । जल (नदी, सरोवर, समुंद्र), पर्वत, जंगल, पेड़-पौधों, वायु, धरा आदि का आदर और इनका संरक्षण सनातन धर्म सिखाता है । हर प्राणी और कण-कण में भगवान के होने की बात सनातन धर्म करता है । पर धन को विष के समान, पर स्त्री को माता के समान, माता-पिता और गुरू को भगवान के समान परहित को धर्म तथा परपीड़ा को अधर्म बताने और कृतज्ञता सिखाने वाला धर्म सबका धर्म है । इसके मूल सिद्धांतों को न मानने से ही देश समाज में जल संकट, शुद्ध वायु संकट, धरती के अस्तित्व पर संकट, हत्या-लूट, घूस इत्यादि दिनों-दिन बढ़ रहे हैं और समस्त मानव जाति और प्राणी मात्र पर ही संकट खड़ा हो गया है ।

७९. सनातन धर्म में भारत भूमि को शेष भूमि से श्रेष्ठ किस प्रकार बताया गया है ?

सनातन धर्म के अनुसार देवता भी भारत भूमि में जन्म पाने के लिए तरसते हैं । यह तपस्या, सत्य, सदाचार और नियम-संयम की भूमि है तथा शेष भूमि भोग भूमि है । ग्रंथों के अनुसार मनुष्य का जन्म भगवान की कृपा से मिलता है । और भारत भूमि में जन्म सत्कर्म-पुण्य से मिलता है ।

८०. कलियुग के बाद सतयुग आएगा । क्या उस समय आज की सड़कें, भवन, इत्यादि रहेंगे ?

नहीं । यह सब पहले ही नष्ट हो जायेगा ।

८१. ग्रंथ कहते हैं कि भगवान संसार से परे हैं । इसका क्या अर्थ है ?

इसका अर्थ है कि भगवान संसारिक बंधन से मुक्त हैं । संसारिक नियम भगवान पर लागू नहीं होते हैं । उदाहरण के लिए संसार में प्रत्येक जीव का जनम और मरण होता है । लेकिन भगवान जनम और मरण से परे हैं । इसी तरह संसार के प्रत्येक व्यक्ति को रोग, दुःख, बुढ़ापा आदि सताते हैं । परंतु भगवान इन सब चीजों से परे हैं ।

संसार के नियमों से न ही भगवान को बाँधा जा सकता है और न ही समझा जा सकता है । भगवान स्वतंत्र हैं । वे संसारिक नियमों के अधीन नहीं है ।

८२. आजकल कई लोग पूछते हैं कि भगवान को किसने बनाया ? इस प्रश्न का क्या औचित्य है ?

इस प्रश्न का कोई औचित्य नहीं है । संसार में प्रत्येक प्राणी अपने जनक (पूर्ववर्ती) से उत्पन्न होता है तथा प्रत्येक संसारिक बस्तु जैसे घर, सड़क, आदि को बनाने वाला कोई न कोई होता है लेकिन यह मानना अथवा सोचना कि जो संसार के लिए सत्य है, हमारे लिए सत्य है , वही भगवान के लिए भी सत्य होगा अथवा होना चाहिए, बिल्कुल गलत है । संसारिक नियम भगवान पर लागू नहीं होते हैं । भगवान और भगवान की सत्ता पर पहुँचते ही संसारिक नियमों की सीमा समाप्त हो जाती है  ।

इस प्रकार संसारिक चीजों को बनाने वाला कोई न कोई अथवा कोई कारण जरूर होता है । लेकिन यह नियम भगवान पर लागू नहीं होता है । भगवान जगत के आदि कारण हैं । जगत के स्रोत हैं । जगत की इकाई हैं । अतः यह प्रश्न निराधार है- जो सबको रचता जगत, उसे रचेगा कौन । राम इकाई जगत की, मूढ़ रहैं किमि मौन ।।

८३. सोहऽमस्मि का क्या अर्थ  है ?

वह भवद्भक्त जीवात्मा मैं हूँ, मैं संसार के कल्पित नाम रूपवाला नहीं  हूँ ।

८४. जीवन में नियम और संयम की जरूरत क्यों होती है ?

बुरे संस्कार अच्छे संस्कार को, बुरे विचार अच्छे विचार को, बुरे कर्म अच्छे कर्म को दबाना चाहते हैं ।  बुराई हमारे ऊपर हावी होना चाहती है । इससे बचने के लिए नियम और संयम की जरूरत होती है ।  नियम और संयम से हम भोग के वशीभूत होने से बच जाते हैं । जबकि इन्द्रियाँ हमें भोग में लगाना चाहती हैं ।

८५. देश-समाज में दिन-प्रतिदिन अपराधों की बाढ़ आती जा रही है । इन्हें रोकने के लिए सनातन धर्म क्या उपाय बताता है ?

देश-समाज में बढ़ते अपराधों का मूल कारण सनातन धर्म के मूल सिद्धांतों से दूर हो जाना है । यदि लोग सनातन धर्म के कुछ ही तथ्यों को मानना शुरू कर दें तो देश-समाज की अनेकानेक समस्यायें समाप्त हो सकती हैं । इनमें से कुछ निम्नलिखित हैं- माता-पिता और गुरजन को मानना, गौ, गंगा और गोविन्द को मानना, परनारी को माता मानना, परधन को विष मानना, परहित को पुण्य और परपीड़ा को पाप मानना ।

८६. अच्छे और बुरे बिचार का जीवन में क्या प्रभाव पड़ता है ?

अच्छे बिचार में सकारात्मक यानी निर्माणकारी उर्जा और बुरे बिचार में  नकारात्मक यानी विनाशकारी उर्जा होती है । सकारात्मक उर्जा से अपना तथा दूसरों का भी भला होता है । वहीं दूसरी ओर नकारात्मक उर्जा से न ही अपना और न ही दूसरे का भला होता है । इसलिए जीवन में सकारात्मक विचारों पर ही बल दिया जाता है ।

८७. अच्छाई की अपेक्षा बुराई का प्रभाव जल्दी क्यों पड़ता है ?

बुराई के परमाणुओं की गति अच्छाई के परमाणुओं से अधिक होती है । इसलिए ही कोई बुरी बात जल्दी फैल जाती है । जबकि अच्छी बात लोगों तक देर में पहुँचती है । दूसरे बुराई में अच्छाई की अपेक्षा प्राथमिक आकर्षण अधिक होता है ।

८८. मन की सफाई का क्या महत्व है ?

मन की सफाई के लिए सत्संगति की जरूरत होती है । और मन की सफाई किए बिना भगवान नहीं मिलते । यदि अपना मन साफ हो जाए तो हम स्वयं तो सुखी रहेंगे ही इससे अपनी वजह से दूसरों को परेशानी का सामना नहीं करना पड़ेगा ।

८९. भगवान राम तक पहुँचाने वाला राज-पथ कौन सा है ?

राम भजन रुपी राजपथ भगवान राम तक पहुँचाने वाला है- बहु मत मुनि बहु पंथ पुराननि जहाँ-तहाँ झगरो सो । गुरू कह्यो राम भजन नीको मोहि लगत राज डगरो सो ।।

९०. जीवन में भजन शुरू करने का सही समय क्या होता है ?

जब मन में भजन के लिए भाव जागृत हो तभी से भजन शुरू कर देना चाहिए ।  ऐसा विचार आते ही, प्रेरणा मिलते ही बिना विलंब किए भजन शुरू कर देना चाहिए । बुढ़ापे का इंतजार नहिं करना चाहिए ।

९१. संसार और भगवान से अपेक्षा रखने में क्या अंतर होता है ?

संसार से अपेक्षा रखने वाले को तनाव होता है । और भगवान से अपेक्षा रखने वाला तनाव से बच जाता है ।  संसार से जितनी अपेक्षा कम की जाय उतना ही अच्छा होता है ।  भगवान का अवलंब सबसे बड़ा अवलंब होता है । इसलिए भगवान की भक्ति करना चाहिए । समर्पण करना चाहिए और विश्वास रखना चाहिए ।

९२. मानव कौन है ?

मानव का मतलब है ‘मानो’ अर्थात जो माने वह मानव है । माता-पिता और गुरजन को मानना, गौ, गंगा और गोविन्द को मानना, परनारी को माता मानना, परधन को विष मानना, परहित को पुण्य और परपीड़ा को पाप मानना मानव धर्म है- रामदास कहते सही मानव माने होय । बिनु माने मानव नहीं मानवता कहि रोय ।।

सनातन धर्म के अनुसार दो हाथ, दो पैर, दो आँख, दो कान आदि रखने वाला प्रत्येक प्राणी मानव नहीं होता है-

बाढ़े खल बहु चोर जुआरा । जे लम्पट परधन परदारा ।।

मनहिं मातु पिता नहिं देवा । साधुन्ह सन करवावहिं सेवा ।।

जिन्ह के यह आचरन भवानी । ते जानेहु निसिचर सब प्रानी ।।

९३. मनुष्य जीवन क्यों मिलता है ?

मनुष्य जीवन अपना परम कल्याण करने के लिए मिलता है । और परम कल्याण होता है भगवान श्रीसीतारामजी से जुड़ने से । यही मनुष्य जीवन का परम हेतु है । आहार-विहार, भय, निद्रा आदि गुण तो अन्य प्राणियों में भी होता है । केवल ईश्वर भजन ही ऐसा काम है जो अन्य योनि के प्राणियों के लिए सुलभ नहीं है । इसलिए ही मनुष्य जीवन मिलता है ताकि भगवान से जुड़कर भगवान को प्राप्त किया जा सके ।

९४. राम रसायन क्या है ?

श्रीराम पद प्रेम-श्रीराम भक्ति जो भवसागर की अचूक औषधि है राम रसायन कहलाती है ।

९५. संत और सदग्रंथ कहते हैं कि भगवान हम सबके अंदर हैं । परंतु भगवान दिखते नहीं है । ऐसे में इस बात को सत्य कैसे माना जाए ?

संत और सदग्रंथ बिल्कुल सत्य कहते हैं । सत्य न ही हमारे समझने से बदलता है और न ही हमारे न समझने से । न ही हमारे मानने से और न ही हमारे न मानने से । सत्य हमेशा सत्य ही रहता है । हाँ सत्य का स्वरूप बदल सकता है ।  इसे जानने और समझने के तरीके अलग हो सकते हैं ।

हम हवा को भी नहीं देख पाते हैं । लेकिन हवा का अस्तित्व है । हवा का हम स्पर्श से अनुभव करते हैं । आत्मा अथवा प्राण भी तो नहीं दिखता । केवल प्रभाव दिखता है । प्राण निकलते ही सब कुछ समाप्त हो जाता है । विज्ञान की बात करें तो काला द्रव्य नहीं दिखता, द्रव्य के मूल कण नहीं दिखते लेकिन इनका अस्तित्व विज्ञान मानता है और इसप्रकार इस तथ्य की पुष्टि करता है कि न दिखने वाली चीजों का भी अस्तित्व होता है ।

शरीर जड़ है । इसमें जो चेतना है वह आत्मा अथवा प्राण से ही आती है । जो अविनाशी ईश्वर का अविनाशी अंश है । जिसे सीटी स्कैन जैसे आधुनिक तकनीकि से भी नहीं पकड़ा जा सकता है । नहीं देखा जा सकता है । लेकिन क्या कोई ऐसा कह सकता है कि आत्मा होती ही नहीं । प्राण होते ही नहीं । यदि नहीं होते तो वह क्या है जिसके निकल जाने के बाद शरीर होकर भी कुछ नहीं रह जाता ।

गोस्वामी तुलसीदास जी ने कहा है कि श्रद्धा और विश्वास की कमी होने से हम अपने अन्तःकरण में स्थिति ईश्वर को नहीं देख पाते हैं ।

९६. भगवान और भगवान की सत्ता को समझने के लिए किस दृष्टि की जरूरत होती है ।

भगवान और उनकी सत्ता मन, वुद्धि और वाणी का विषय नहीं है । हमारे पास जो भी साधन हैं उनके जरिये हम न भगवान को जान सकते हैं और न समझ सकते हैं । संसारिक दृष्टि से भगवान को न ही देखा जा सकता है, न ही उन तक पहुँचा जा सकता है और न ही पाया जा सकता है । हम अपनी दृष्टि और सोच बदलकर भगवान की सत्ता का अनुभव कर सकते हैं । भगवान अनुभव गम्य हैं । भगवान और उनकी सत्ता का अनुभव किया जा सकता है । इसके लिए श्रद्धा और विश्वास की जरूरत होती है ।

९७.  मन में कौन सी भावना दृढ हो जाय तो जीवन बदल सकता है ?

मैं रामजी का सेवक हूँ और राम जी मेरे स्वामी है । यह भावना बहुत उत्तम है । यदि भूलकर भी यह विश्वास कम न हो तो जीवन बदल सकता है ।

९८. भक्ति और भगवान को लेकर ग्रंथों और संतों के अनेकानेक मत हैं । ऐसे में क्या करना चाहिए ?

इस प्रश्न का गोस्वामी तुलसीदास जी ने बहुत सीधा उत्तर दिया है-

नर बिबिध कर्म अधर्म बहु मत सोकप्रद सब त्यागहू ।

बिस्वास करि कह दास तुलसी राम पद अनुरागुहू” ।।

९९. समस्त साधनों का फल क्या है ?

 सत्संगति, तीर्थाटन, जप, तप, व्रत यज्ञ आदि साधनों का फल भगवान राम के चरणों में प्रीति होना चाहिए । यदि यह फल प्राप्त न हो तो समझना चाहिए कि इन साधनों का फल मिला ही नहीं ।

१००. सभी सद्ग्रंथो की सीख क्या है ?      

सभी सदग्रंथों की सीख है- भगवद्भक्ति, भगवदशरनागति, भगवदचरनानुराग । अतः-

रामहिं सुमिरिए गाइए रामहिं । संतत सुनिए राम गुन ग्रामहिं ।।

 

।। जय श्रीसीताराम ।।

______________________________________