प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को व्रत रखना चाहिए

जैसे एकादशी व्रत करना चाहिए वैसे ही प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को व्रत करना चाहिए । प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को भोजन वर्जित है । ग्रंथों के अनुसार प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को भोजन नहीं करना चाहिए और व्रत रखना चाहिए ।

श्रीराम नवमी अर्थात चैत्र महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी का विशेष महत्व है । इसलिए सभी को श्रीराम नवमी को उपवास-व्रत रखना चाहिए । यह वर्णन सनातन धर्म के कई ग्रंथों में मिलता है ।

इस प्रकार भगवान श्रीराम के भक्तों को केवल राम नवमी को ही नहीं बल्कि प्रत्येक महीने के शुक्ल पक्ष की नवमी को व्रत रखना चाहिए ।

 ।। जय श्रीराम ।।

प्रगटे राम रघुवीरा, अवधपुर बीथिन में भीरा

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अयोध्या जी जैसा कोई दूसरा धाम नहीं है-अवध सा दूजा नहीं कोई धाम

अवध सा दूजा नहीं कोई धाम ।

परम सुहावन जन मन भावन, रामपुरी बड़ा नाम ।। 

कण-कण पावन अघौघ नसावन, प्रगटे यहाँ श्रीराम । 

शिवजी गावैं उमहिं सुनावैं, महिमा तीर्थ तमाम ।। 

सुर मुनि आवैं महिमा गावैं, करि-करि दण्डप्रणाम । 

सरजू सोहैं छवि मन मोहै, कल-कल जल अविराम ।। 

भगति जगावै राम मिलावै, सत्या पूरणकाम ।

अवध वास ते कबहूँ रीझैं, दीन संतोष के राम ।। 

।। अवध सरजू श्रीराम की जय ।।

क्या कलियुग में भगवान सस्ते हो जाते हैं ?

क्या भगवान भी बाजार में बिकने वाली किसी चीज के समान कभी मँहगे और कभी सस्ते होते हैं ? अथवा ऐसा कहना, सोचना और बताना मूर्खता है ।

भगवान सहज कृपाल हैं । भगवान परम स्वत्रंत हैं । भगवान के ऊपर कोई नियम लागू नहीं होता है । और कोई भी संसारिक नियम तो भगवान पर बिल्कुल लागू नहीं होते । जहाँ संसारिक नियमों की सीमा समाप्त होती है वहीं से भगवान की दिव्यतम सत्ता, लोक-लीला आदि का आरंभ होता है ।

 अर्थशास्त्र और वाणिज्य में माँग और पूर्ति का सिद्धांत चलता है । इसके अनुसार जिस चीज अथवा वस्तु की माँग अधिक होती है उसकी कीमत अधिक होती है । और मुश्किल से भी मिल सकती है । लेकिन जिस चीज अथवा वस्तु की माँग कम होती है वह बहुत सस्ती रहती है और आसानी से मिल जाती है ।

 इसी सिद्धांत को एकात लोग मूर्खता वश भगवान पर भी आरोपित करते हैं और सोचते, कहते और प्रचारित करते हैं कि कलियुग में भगवान की माँग कम है अर्थात भगवान को चाहने वाले कलियुग में कम हैं । इसलिए कलियुग में भगवान बहुत सस्ते हैं और आसानी से मिल सकते हैं ।

  लेकिन यह समझना बहुत जरूरी है कि भगवान बाजार में बिकने वाली न तो कोई चीज अथवा वस्तु हैं और न ही भगवान पहले खरीदने से मिलते थे और न आज ही मिलते हैं । भगवान जैसे पहले थे वैसे आज भी हैं वे सदा एक रस रहते हैं वे समय के साथ बदलते नहीं हैं । इसलिए भगवान की तुलना बाजार में बिकने वाली किसी चीज अथवा वस्तु से करना महा मूर्खता ही है ।

  इस प्रकार भगवान पर माँग और पूर्ति का सिद्धांत आरोपित करना ठीक नहीं है । भगवान किसी विशेष प्रयत्न और प्रयास के बस में भी नहीं हैं । भगवान यह करने पर अथवा ऐसा करने पर ही मिलते हैं इन सब बातों का भी कोई विशेष अध्यात्मिक महत्व नहीं है । भगवान केवल और केवल अपनी कृपा से मिलते हैं । भगवान जब कभी किसी से मिलते हैं तो अपनी ओर से ही मिलते हैं अपनी कृपा के बल से मिलते हैं । अतः माँग और पूर्ति सिद्धांत को भगवान पर आरोपित करके न तो स्वयं गुमराह होना चाहिए और न ही दूसरों को गुमराह करना चाहिए ।

।। जय श्रीराम ।।

श्रीराम नवमी को भोजन नहीं करना चाहिए- श्रीराम नवमी व्रत कामनाओं की पूर्ति कराने वाला और भगवद लोक की प्राप्ति कराने वाला है

श्रीराम नवमी को भोजन नहीं करना चाहिए । श्रीराम नवमी को पूरे दिन व्रत रखकर अगले दिन दशमी में पारण करना चाहिए ।

श्रीशंकरजी ने माता पार्वतीजी जी से कहा है कि जो लोग मोह बस-आलस्य, प्रमाद, भोजन में अधिक महत्व बुद्धि होने से आदि के कारण श्रीराम नवमी को व्रत न रखकर भोजन करता है वह निसंदेह घोर नरकों में पकाया जाता है ।

श्रीराम नवमी का व्रत पुत्र आदि कामनाओं की पूर्ति कराने वाला और भगवद प्रेम तथा भगवद लोक की प्राप्ति कराने वाला है । व्रत रखकर निद्रा और आलस्य का त्याग करके श्रीराम नवमी महामहोत्सव उत्साह पूर्वक मनाना चाहिए । और रात्रि जागरण करना चाहिए । इस दिन उपवास और जागरण का अतुलनीय महत्व है । इस दिन श्रीसरयू जी में स्नान करके श्रीराम जन्म भूमि के दर्शन का विशेष महत्व है और और स्नान-दर्शन अवश्य करना चाहिए । श्रीराम नवमी को सरयू जी का दर्शन, स्नान और श्रीराम जन्म भूमि का दर्शन, व्रत और जागरण घोर संसार सागर से पार उतारने वाला और संसार चक्र से छुड़ाने वाला तथा पुत्र आदि कामनाओं की पूर्ति करने वाला तथा भगवद प्रेम प्रदान करने वाला है ।

 ।। श्रीराम नवमी व्रत महामहोत्सव की जय ।।

तीन काल तिहुँ लोक में, राम सरिस नहिं कोय

रामदास सबके कहा, अपने अपने राम ।

मेरे तो बस एक गति, कोशलपति श्रीराम ।।

दशरथसुत सीतारमण, तुलसिदास के राम ।

रामदास रघुपति चरण, कोटि कोटि प्रणाम ।।

आरतहित असरन सरन, दीनन को नहिं वाम 

रामदास नहिं और जग, राम सरिस यक राम ।।

सरल सबल करुणाअयन, जन मन राखत जोय ।

तीन काल तिहुँ लोक में, राम सरिस नहिं कोय ।।

विनय शील गुनगन धरे, जन हित में प्रवीन ।

रामदास राजिवनयन, हेरि निवाजत दीन ।।

कायर कूर कपूत ते, कौन भरै निज धाम ।

रामदास रघुवीर का, दीनसंग्रही नाम ।।

बानर भालू असुर को, सखा बनावै कौन ।

दीनबंधु रघुपति सरिस, हुआ न है नहिं होन ।।

           रामेण सदृशो देवो न भूतो न भविष्यति । – श्रीआनंद रामायण ।।

।। जय श्रीराम ।।

जब तक रुचि संसार में हरि से प्रीति न होय

जब तक रुचि संसार में हरि से प्रीति न होय ।

व्यक्ति पदारथ वस्तु रुचि तजता बिरला कोय ।।

दस छोड़ा तौ सौ मिले, छुटा नहीं संसार ।

रामदास चलता रहा, राग द्वेष व्यवहार ।।

हाथ लगाते अब नहीं, रुपया पैसा दाम ।

नारी को छूते नहीं, त्याग बड़ा है काम ।।

रामदास जो जुड़ गए, सोइ जुटावैं दाम ।

बिनु पैसा नहिं होय जग, जो मन आवै काम ।।

आवक जावक होत बहु, लगा रहे दरबार ।

यहि कीजे तो हरि मिलैं, छूट जाय संसार ।।

जग रीझै तो सब मिलै, मान बड़ाई दाम ।

रामदास हरि ना मिलैं, भोजन भूरि प्रणाम ।।

जग रीझा तो क्या हुआ, रीझे नहिं जो राम ।

रामदास केहि लगि तजे, घर घरनी धन धाम ।।

भोग रोग सा जब लगे, भीड़ लगे जिमि साँप ।

रामदास नयना झरे, हर पल सुमिरन जाप ।।

राम दरश की लौ लगी, राम विरह उर ताप ।

रामदास ऐसी लगन, देखि मिलेंगे बाप ।।

माया मय संसार है, फँसत लगै नहिं बार ।

फँसे कँहै वे फँसि गए, नहीं लगैंगे पार ।।

एक आस रघुवीर की, समरथ परम उदार ।

रामदास चित कीजिए, रामचंद्र सरकार ।।

।। जय श्रीराम ।।

भगवान का दर्शन कब होता है ?

गोस्वामी तुलसीदासजी ने श्रीविनयपत्रिका में रामजी को बाप कहा है क्योंकि रामजी बाप के भी बाप हैं । आजतक जितने भी बाप हो चुके हैं, जितने हैं और जितने आगे होंगे उन सबके बाप भगवान श्रीराम हैं । अतः इस लेख में बाप का मतलब भगवान है । 

अब प्रश्न यह है कि ये बापजी जो बाप के भी बाप सबके बाप हैं इनका दर्शन कब होता है ? ये बापजी कब मिलते हैं ? इस लेख में बापजी से मिलने का एक सूत्र बताया गया है । 

भगवान से मिलने का कोई एक ही रास्ता नहीं है । कोई कहे कि ऐसा करने पर ही भगवान मिलते हैं । अथवा ऐसा करने पर ही भगवान का दर्शन होता है तो यह गलत है ।

  ऐसा कोई नहीं कह सकता है कि भगवान से मिलने का, भगवान के दर्शन का एक ही रास्ता है अथवा यही रास्ता है ।

फिर भी निम्नलिखित दोहों में वर्णित स्थिति, अवस्था भगवान के दर्शन का एक सूत्र है –

भोग रोग सा जब लगे, भीड़ लगे जिमि साँप ।

रामदास नयना झरे, हर पल सुमिरन जाप ।।

राम दरश की लौ लगी, राम विरह उर ताप ।

रामदास ऐसी लगन, देखि मिलेंगे बाप ।।

।। जय श्रीराम ।।

रामजी सदा साथ निभाते हैं

संसार का सब कुछ अर्थात सारा संसार एक दिन बिछुड़ जाता है, नहीं बिछुड़ते हैं तो एक मात्र रामजी । राम जी जन्म से लेकर मरण तक और उसके बाद भी साथ निभाते हैं । इस प्रकार संसार तो बिछुड़ जाता है लेकिन मेरे रामजी कभी नहीं बिछुड़ते हैं ।

इतना ही नहीं कोई पहले तो कोई बीच में साथ छोड़ जाता है । और अंत में तो कोई साथ में नहीं ठहरता है और न ही कोई ठहरता है अर्थात सबको संसार छोड़कर जाना पड़ता है । 

रामजी सभी के आदि, मध्य और अंत के साथी हैं लेकिन मन राम जी के चरण को न पकड़कर संसार को ही पकड़ता है । संसार को जबरन पकड़ता है और लोभ, मोह की रस्सियों में जकड़ लिया जाता है । संसार में जिसे पकड़ो वह वैसे ही छूट जाता है, निकल जाता है जैसे मुट्ठी में पकड़ा हुआ जल ।

संसार रूपी चक्की के दो पाटे हैं एक का नाम सुख और दूसरे का नाम दुख है । इंही दो पाटों के बीच में पिस-पिस कर जीव चौरासी का चक्कर लगाता रहता है ।

ऐसी स्थिति में कोई बिना कृपासिंधु भगवान रघुनाथ जी की कृपा के और किस बिधि से निकल सकता है ? अतः हे मेरे मन अब तो तूँ सीताराम जी के सुखदायक चरणों को मत भुला ।

ऐसा कौन है जो रामजी के गुणों और उनकी करनी को याद कर-करके भव सागर से पार न हो जाए अर्थात कोई भी ऐसा नहीं है जो रामजी के गुणों और उनके चरित्र का चिंतन करके भव सागर से पार न उतर जाए । दीन जनों की बिगड़ी तो रामजी की कृपा से ही सुधरती आई है और सुधरती है । ऐसे में मुझ दीन की भी बिगड़ी रामजी की कृपा से बन जायेगी- 

जग बिछुरै एक राम न बिछुरैं 

आदि मध्य अरु अंत के साथी राम चरन नहिं पकरै ।।१।।

कोउ पहले कोउ बीच में छोड़ै अंत संग नहिं ठहरै

जग में जाइ जगत हठि पकरै लोभ मोह रजु जकरै ।।२।।

जो पकरै सो हाथ से जाए मूठी जल जिमि निसरै ।

भवचक्की सुख दुख दो पाटे पिस-पिस चौरासी टहरै ।।३

कृपासिंधु रघुनाथ कृपा बिनु केहि बिधि कोउ पुनि निकरै ।

सीताराम चरन सुखदायक अब जनि रे मन बिसरै ।।४

सुमिर-सुमिर रघुपति गुन करनी कोउ नहिं भवनिधि उतरै 

दीन संतोष राम कृपा ते दीन जनन की सुधरै ।।५।।

।। जय श्रीसीताराम ।।

चित करो राम कहे ग्रंथन की कीजे लाज विरद अरु पन की

।। श्रीसीतारामाभ्याम नमः ।। 

चित करो राम कहे ग्रंथन की । 

कीजे लाज विरद अरु पन की ।।१।  

सुर मुनि साधु कहे गुनगन की । 

हारत भीर सदा दीनन की ।।२। 

कूर कपूत सकल दुर्जन की । 

नहिं गति और छाँड़ि चरनन की ।।३। 

सरन राम पद सब असरन की । 

सादर बाँह गहत निबरन की ।४।   

सार संभार राम दीनन की । 

करत सदा जोगवत जन मन की ।।५।  

सुनत राम सबबिधि हीनन की । 

कोल किरात आदि बनरन की ।।६।  

बिगत सकल गुन जदपि सुजन की । 

राखो लाज नाथ अब जन की ।।७।  

दीन संतोष नहीं तन मन की । 

जप तप बल नहिं और जतन की ।।८। 

मोरे आश राम चितवन की । 

पतितपावन अरु शील सदन की ।।९। 

।। जय श्रीराम ।।

विनयावली-२

।। श्रीसीतारामाभ्यां  नमः।।

विनयावली

[१३६]

पंकजलोचन सोचविमोचन राम प्रभू जग नाव खेवैया ।

समर्थ उदार सहजकृपाल भक्तन के दुख दोष दलैया ।।२।।

मंगलमूरति श्यामलसूरति महादेव उर धाम बसैया ।

मोरे सर्वस दीनदयाल तू स्वामि सखा गुर बाप व मैया ।।२।।

डूबत नाव मझधार हमारी सीतारमन तुहीं पार लगैया ।

संतोष से दीन मलीन के ऊपर रघुनाथ तुम्हीं एक हाथ रखैया ।।३।।

                               [१३७]

राम करुनामय दीनदयाल । सुमुख सुलोचन आरतपाल ।।१।।

परम सुशील सहजकृपाल । पाहि कहत मेटत दुख जाल ।।२।।

शोभा अनुपम अमित अपार । देखत मिटय कोटि मद मार ।।३।।

सेवत सुलभ अभिमत दातार । पालत पोषत जग आधार ।।४।।

दो आखर का प्रभु तव नाम । सुमिरत सुलभ सरिस तरु काम ।।५।।

कोमलचित अति सरल स्वभाव । शील सकोच सिंधु जग राव ।।६।।

गावैं तू तेरे कहि गुन जन । उल्टा नाम कहेउ रीझत मन ।।७।।

प्रणाम करेउ सकुचत प्रभु मन । असहाय सहायक प्रनत हित पन ।।८।।

अविगत अलख अनादि जगरूप । सुनावत सकुचत सहज सरूप ।।९।।

कपि केवट खग निसचर मीत । सुनत हर्षयुत परम विनीत ।।१०।।

निरास उदास नहीं जेहिं आस । राखत राम दया करि पास ।।११।।

संतोष के आन मान विश्वास । राम दयानिधि जगत सुपास ।।१२।।

                           [१३८]

हे राम प्रभूजी जग विश्राम । विश्व उजागर तव गुन ग्राम ।।१।।

परम सरल समरथ सुख धाम । दीन सहायक पूरण काम ।।२।।

निज मति जन करते गुन गान । करुणा शील वश्य सनमान ।।३।।

जदपि अगोचर अगम अनादि । बंदित निगम शंभु ब्रह्मादि ।।४।।

जगताश्रय प्रभु जगतनिवास । मोरे बल संबल बिश्वास ।।५।।

विनय प्रभु जी धरि महि माथ । अवगुन दोष छमँहु रघुनाथ ।।६।।

मोरे सर्वस सीतानाथ । सिरपे रख दो प्रभु जी हाथ ।।७।।

असरन सरन प्रभु दयानिधान । जग जल विबस कृपा जलजान ।।८।।

अघ अवगुन दुर्मति अग्यान । हरौ देउ प्रभु निर्मल ज्ञान ।।९।।

तुलसीदास गुरू मानस नाम । चौथे पुनि तुमहीं श्रीराम ।।१०।।

पवन-सुवन अरु छठे विनयजी । कृपा अनुग्रह जानि धरे जी ।।११।।

दीन मलीन नहीं कछु ज्ञान । जथामति विनय करँउ गुनगान ।।१२।।

अविनय छमहुँ प्रभु जानि अजान । संतोष शरन राखौ भगवान ।।१३।।

                           [१३९]

जानकीजीवन जन तरु काम । दीनदयाल महाछविधाम ।।१।।

सुमुख सुलोचन जगअभिराम । दीन मलीनों को नहि वाम ।।२।।

तुम सम तुम नहि दूजा राम । भवभयमोचन तुम सुखधाम ।।३।।

सोचविमोचन प्रभु तव नाम । राम नाम प्रभु जग आराम ।।४।।

भटकत जन प्रभु लगे विराम । जगपालक जग के विश्राम ।।५।।

कृपादृष्टि कीजै श्रीराम । आरतपाल सियावर राम ।।६।।

शरन चरन रति देहु राम । द्रवउ राघव पूरणकाम ।।७।।

रघुवंश रवी तू दयाधाम । संतोष पुकारे राम राम ।।८।।

                          [१४०]

दीन मलीन बाँह गहि राखत अभय करैं प्रभु राम हमारे ।

रीति सदा है दीन को आदर सियाराम दरबार तुम्हारे ।।१।।

खाली हाथ गयो नहि कोई जो भी पुकारा आप दुआरे ।

याचक नाते निराश कियो नहि रावन से खल के भी पुकारे ।।२।।

याचना करि जेहि द्वार पे होहिं याचक वृंद अजाचक सारे ।

संतोष पुकारि रहा सियाराम आज उसी दरबार दुआरे ।।३।।

                          [१४१]

कृपासागर त्रैलोक उजागर त्रिबिधि ताप अरु पाप कटैया ।

आरतबन्धु दया सुखसिंधु जन के पन अरु प्रेम रखैया ।।१।।

सुर मुनि रंजन जन दुख भंजन दारुन बिपति को मेट सकैया ।

जगअभिराम महाछबिधाम समर्थ उदार धुर धर्म धरैया ।।२।।

राम भजे बिनु क्या जग जीवन दीनदयाल भव पार करैया ।

संतोष के नाथ श्रीरघुनाथ दीन अनाथ के बाँह गहैया ।।३।।

                           [१४२]

राम कृपानिधि दानि शिरोमनि तव दिए नाथ मिलत सबहीं ।

सबरी गीध सुग्रीव बिभीषन सब भए पूरणकाम सही ।।१।।

प्रनतपाल परमकृपाल तव पन जानत है को नहीं ।

जन दुखमोचन सोचविमोचन मोर सहायक हौ तुमही ।।२।।

आसा बनी पर घेरे निरासा दीनदयाल समय निरबही ।

संतोष पुकारत देर भई कृपा नाथ करौ अब ही ।।३।।

                    [१४३]

हे हरि हरहु मोरि कुटिलाई ।

कैसे क्या मैं करूँ नाथ जाते कुबिचार नसाई ।।१।।

‘कु’ अगार मोहि सम को नाहीं कहौं का बात बढ़ाई ।

कलिमल ग्रसित मंद महाखल फिरउँ विबस जड़ताई ।।२।।

नाथ भरोस नहीं निज करनी छाड़ि चरन गति दाई ।

कोमलचित रीझत प्रभु थोरे गुरू तुलसी ज्ञान सिखलाई ।।३।।

करुनाकर प्रभु करि करुना, मोहिं लीजै अपनाई ।

संतोष सुमति दीजै रघुराई निज पन प्रीति देखाई ।।४।।

                    [१४४]

राखौ न अब बिसराई ।

कृपा करत प्रभु आप कृपा से कृपा नहि कबहुँ अघाई ।।१।।

करुणा तव संकेत मात्र से सोषत दुख रघुराई ।

हनुमान से सेवक एक इशारे अगमहुँ सुगम बनाई ।।२।।

महिमा अमित करुणा सेवक अस कहि न जात प्रभुताई ।

जेहिं अपनावत राम दयानिधि सब कोउ लेइ अपनाई ।।३।।

तुम बिनु नाथ नहीं हित कोई कहौं न बात बनाई ।

रामदयामय तुम्हीं सहायक रखो न देर लगाई ।।४।।

चातक को जिमि स्वाति जल आस तिमि मो कहुँ सुरसाई ।

संतोष चरन तजि ठौर नहीं राखो भुजा उठाई ।।५।।

                        [१४५]

राम करुनानिधि करि करुना अब मोरे सब संताप नसावौ ।

मैं मूढ़ मलीन कुटिल कुविचारी केहि गुन ते प्रभु तोहिं रिझावौं ।।१।।

नेति-नेति कहि निगम बखानैं मैं कैसे तुम्हरे गुन गावौं ।

अपनी ओर से करि कृपा प्रभु सब बिगड़ी अब मोर बनावौ ।।२।।

करुना दया की प्रभु तू मूरति नाथ न और विलंब लगावौ ।

कृपा अनुग्रह करि भगवन संतोषहुँ उर निज रूप बसावौ ।।३।।

                          [१४६]

रामदयामय सरल सबल प्रभु धारन धर्म धुर धीर ।

विश्वाश्रय प्रभु करुनासागर हारन जन भव भीर ।।१।।

जग है हँसैया काम न आए तुम बिनु हरै को पीर ।

बहुत देखैया नहीं सुनैया हारहु तुम जन भीर ।।२।।

राम प्रभू मैं तोहिं पुकारूँ धर दो कर मम सीर ।

संतोष के बल विश्वास आस तुम कृपा करौ रघुवीर ।।३।।

                      [१४७]

बलहीन दीन देव जब सोच संताप बस भिखारी ।

दनुज सब टोह में बसैं गिरि खोह में हालत परम दुखारी ।।१।।

सब बिधि निरास आस खोय जब हरि को जाइ पुकारी ।

दीनदयाल राम आइ हरेउ सोक संताप अति भारी ।।२।।

थाप्यों सब सुरन को दलि असुरन को गावत गुन मुनि झारी ।

संतोषहुँ सोच संताप हरन तुमही राम खरारी ।।३।।

                      [१४८]

जब सुत बिनु दशरथ राय दुखारे ।

सोच विबस रानिहुँ सब रहतीं अति मन मारे ।।१।।

कृपाधाम राम प्रभू तुम, सुत होइ आप पधारे ।

राय-रानि गुरु पुरबासिन्ह को कियो सुखराशि सुखारे ।।२।।

सोचविमोचन राम प्रभू तुम सबके सोच निवारे ।

आस किए पद पंकज में संतोषहु आपहिं राह निहारे ।।३।।

                     [१४९]

गाधिसुवन मख पूर्णाहुति बिनु रहते परम दुखारी ।

करहिं उत्पात बहुत रजनीचर उनकी थी मति मारी ।।१।।

प्रभुजी आए यज्ञ कराए दनुजन को संहारी ।

सुबाहु ताड़िकादि को गति दीन्हेउ राम बड़े हितकारी ।।२।।

मारीच को पठयेउ सिंधु पार प्रभु आगिल काज बिचारी ।

रामप्रभू तव कृपा से, भये मुनि वृंद सुखारी ।।३।।

जब-जब बिपति पड़ी जन पे प्रभु, तुमही विपदा टारी ।

संतोष पुकारत रामदयामय, हर लो बिपदा सारी ।।४।।

                      [१५०]

बर्षा आतप शीत सहत जब पाहन होइ मुनि नारी ।

सूनें वन बिच पड़ी बिचारी कितनी विपदा भारी ।।१।।

दीनदयाल उदार प्रभु तुम दीन्हेउ पद रज डारी ।

मुक्त भई प्रभु दर्शन पाई बन गई बिगड़ी सारी ।।२।।

खोजि-खोजि के दीन उधारेउ तुम सम को उपकारी ।

करुनानिधि अब करि करुना सुधि लीजै नाथ हमारी ।।३।।

संतोष के नाथ तुहीं रघुनाथ सोचहु आप विचारी ।

निज जन जानि राम अब रीझहु देखहुँ ओर तुम्हारी ।।४।।

                      [१५१]

जनकराज सिया मातु सहेली सब थे परम दुखारी ।

सोच मगन नृप पन करि सोचैं रहिहैं कन्या क्वारीं ।।१।।

तोड़ि सकै अस बीर कहाँ जब कोउ न सका धनु टारी ।

सबकर सोच मिटायेउ स्वामी भंजेउ शिव धनु भारी ।।२।।

परशुराम जी कोप से धाए धनु दै गए सिधारी ।

राजा-रानी सिया सहेली हर्षे पुर नर-नारी ।।३।।

जन दुखमोचन सोचविमोचन सबको कियो सुखारी ।

सुमिर-सुमिर रघुपति तव करनी संतोष लहै सुख भारी ।।४।।

                         [१५२]

सोचहुँ केवट भाग बड़ाई ।

सबबिधि हीन दीन अति ताको राम लिहेउ अपनाई ।।१।।

मीत पुनीत किए रघुनायक भेंटेउ कंठ लगाई ।

शिव अज मुनि सब जेहि चरनन हित करते कोटि उपाई ।।२।।

केवट धोये सोइ पद पंकज सुर दुर्लभ सुख पाई ।

दीन मलीन पे सहजहिं रीझैं करुनानिधि रघुराई ।।३।।

वेद पुरान साधु सुर गावत दीनन को सुखदाई ।

यह बल एक न साधन कोई कहि न जाइ अधमाई ।।४।।

नियम अनेक जतन सब गावत सुनि गुनि मन सकुचाई ।

केहि गुन रिझिहैं सुर मुनि सेवित नाथ अमित प्रभुताई ।।५।।

नीच निषाद जो केवट रीझे दीन दया अधिकाई ।

धीर धरहु संतोष समुझि मन कबहुँ दया तो आई ।।६।।

                       [१५३]

प्रभु सम नहि गतिदाई ।

सुर सदग्रंथ साधु सब गावत शील दया अधिकाई ।।१।।

दीन दाहिने सदा रामजी युग युग ते चलि आई ।

जग पितु-मातु गीध को तात कहत बहुत सुख पाई ।।२।।

घायल होइ जब गीध जटायू परे धरनि महुँ आई ।

राम-राम रटि राह निहारैं प्रभु पद आस लगाई ।।३।।

सुनि निज नाम पुकारत कोई सिया की याद भुलाई ।

गीधराज ढिंग रामदयामय पहुँचे वेगिहिं जाई ।।४।।

घायल जटायू गोद राखि प्रभु रोयउ नीर बहाई ।

सिया सुधि कहि जब गीध जटायु प्रभु पुर पहुँचे जाई ।।५।।

क्रिया किए निज कर रघुनायक जलजनयन जल लाई ।

दीनदयाल दुखहरन गोसाईं गति दीन्हेउ सुखदाई ।।६।।

गीध सरिस खग आमिष भोगी पायउ परम बड़ाई ।

करुणासागर प्रभु गुन आगर उजरे देत बसाई ।।७।।

महिमा अस करुनामय की हारेउ देत जिताई ।

परम सरल सुख शील के सागर गुनगन कहे न सिराई ।।८।।

सुमिर-सुमिर गुनगन की करनी नयन नीर भरि आई ।

करि कृपा चित करहु संतोष की दीनबंधु रघुराई ।।९।।

                        [१५४]

जन सुधि लेहिं रघुवीर गोसाईं ।

शबरी बसत वन होत मगन मन प्रभु पद आस लगाई ।।१।।

प्रभु दर्शन हित दिन प्रति चितवत मारग नयन बिछाई ।

सिया को खोजत रामदयानिधि पहुँचे कुटिया जाई ।।२।।

खायउ बेर प्रेम रस सानी बहुबिधि कियो बड़ाई ।

आस पियास बुझी शबरी की निरखेउ नयन अघाई ।।३।।

हरष सहित प्रभु धाम सिधारी मुनि दुर्लभ गति पाई ।

भिलनी दीन हीन जग जानै प्रभु करुणा बरसाई ।।४।।

रीति पुनीत प्रीति जन गावत राम दीन पितु माई ।

दीन हीन लखि प्रभु जी रीझत राम दीन सुखदाई ।।५।।

दीन मलीन मीत हित रघुवर अब न रखो विसराई ।

संतोष निहारो वेगि दया करि करुनामय रघुराई ।।६।।

                       [१५५]

असरन-सरन सरन सुखदाई ।

निराधार-आधार रामजी तिहुँपुर होत बड़ाई ।।१।।

बालि त्रास त्रसित सुग्रीव को लीन्हेउ मीत बनाई ।

दुख भव डूबत ताहिं प्रभु तुम भेंटेउ कंठ लगाई ।।२।।

शरन राखि तेहिं कृपासागर कीन्हेउ तुम कपिराई ।

शरन हीन संतोष प्रभु तुम असरन सरन कहाई ।।३।।

निराधार मैं नाथ हमारे तुम्हीं अधार रघुराई ।

प्रनतपाल प्रभु निज पन राखौ छमि अवगुन अधिकाई ।।४।।

                         [१५६]

देत सदा प्रभु दास बड़ाई ।

सीता खोजन चले भालु-कपि धरि आयसु कपिराई ।।१।।

परम सुजान सर्वज्ञ सियावर हनुमत पास बुलाई ।

दीन्हि मुद्रिका पवनतनय को राघव यह सिखलाई ।।२।।

सिया सुधि लै वीर तुम आवहु निजि बुधि बल दिखलाई ।

सकल काज करि कपि जब आए सुखनिधि अति सुख पाई ।।३।।

सनमुख होइ न सकै मन मोरा भयेंउ रिनी मैं भाई ।

संतोष मिले कहि रामदयानिधि परम कृतज्ञ रघुराई ।।४।।

सेवा प्रीति बजरंगबली की बार-बार प्रभु गाई ।

जग दुखमोचन सोचविमोचन संकटमोचन नाम धराई ।।५।।

                        [१५७]

असहाय-सहायक राम गोसाईं ।

दीनदयाल बड़े कृपाल प्रनतहित सुखदाई ।।१।।

करुनासागर जन हित कारन सहि लेते कठिनाई ।

आरतदीन मलीन के गाहक प्रभु कृपा अधिकाई ।।२।।

देश निकास्यो अनुज दसानन मारेउ लात उठाई ।

बिभीषन आए राम प्रभू पहिं दीन दशा बतलाई ।।३।।

रावन भ्रात निसाचर जाति तेहिं भेंटेउ हर्षाई ।

गहि भुज राखेउ राम दयानिधि मंत्री मीत बनाई ।।४।।

बड़े सकोची लंकेश बनायेउ तेहिं अतिसय सकुचाई ।

सरल सबल कोमलचित करुनामय रघुराई ।।५।।

सारद शेष निगम सुर साधु प्रभु गुनगन रहे गाई ।

राम सिवा संतोष नहीं मोरहु कोई सहाई ।।६।।

                       [१५८]

राम सदा प्रनत सुखदाई ।

प्रीति पुनीत प्रनतहित रीति युग-युग ते चलि आई ।।१।।

रावन जब निज शूल चलायो लक्ष्य बिभीषन भाई ।

बिभीषन पीछे मेलि सहेउ सोइ शक्ति प्रभू हर्षाई ।।२।।

निज पन राखत राम सदा जन हित सहि कठिनाई ।

सुमुख सुलोचन सोचविमोचन शील सिंधु रघुराई ।।३।।

सरल सुशील सबल कृपाल विनय करुणा बहुताई ।

विनय करत संतोष छ्मानिधि अघ अविनय कुटिलाई ।।४।।

छमहुँ दोष राघव गुनगाहक आरत जन नहि मति अधिकाई ।

दुख जल सागर दीन दशा, खग जिमि यान कृपा सुरसाई ।।५।।

                             [१५९]

सारद शेष निगम गुन गाए ।

आरत दीन मलीन सदा राम प्रभू मन भाए ।।१।।

करुनासागर करि करुना दीनन सदा बसाए ।

दीन जनों के कारण ही साकेत छोड़ि बसुधा पे आए ।।२।।

राम सरिस कोउ और नहीं जो बानर-भालु को मीत बनाए ।

जग पितु-मातु श्रीरघुनाथ गीध को कहि प्रभु तात बुलाए ।।३।।

दीनदयाल कृपाल सदा जन के सब दुख दोष नसाए ।

संतोष बनय नहिं जतन कोई राम कृपा बिनु पाए ।।४।।

                         [१६०]

सियावर परम उदार ।

अवगुन दोष छमहिं सब जन के, दया क्षमा आगार ।।१।।

भूल-चूक जो जन से होए प्रभु जी देत सुधार ।

डूबत को देंय कर अवलंबन बहे जात आधार ।।२।।

प्राणि-मात्र के प्रभु हितकारी सबकी सुनत गुहार ।

समुझत बनय जाय नहि बरनी गुनगन अमित अपार ।।३।।

सरल सींव कृतज्ञ कह्यो कपि केहि बिधि होंउ उधार ।

संतोष स्वामि असि को जग नाहीं मन मम होत निसार ।।४।।

                             [१६१]

आरत दीन मलीन सनेही ।

असरन-सरन असहाय-सहायक सुमुख सुलोचन प्रभु नहि केही ।।१।।

निराधार-आधार दयानिधि करुनाकर प्रनत जन नेही ।

सुर मुनि रंजन जन दुख भंजन शिव अज ध्यावत हैं प्रभु जेही ।।२।।

राखनहार नहीं जेहिं कोई राखत राम दया करि तेही ।

कृपासागर विरद उजागर रीति प्रीति पन सदा निबेही ।।३।।

निर्बल को बल संबल अवलंब गुनगन अमित कहौं बिधि केही ।

देखौं सुनौं नहिं और कहीं मोहि सुपास प्रभु कृपा में ही ।।४।।

राम को छाड़ि नहीं कोउ मो कहुँ आस भरोस रघुनायक से ही ।

संतोष नहीं कोउ मोर सुनैया तातु-मातु रघुवर वैदेही ।।५।।

                       [१६२]

सत्कर्मों की एक भी मुझमें कहीं नहीं कोई रेखा है ।

अवगुन हैं इतने सारे कर सकता कोई न लेखा है ।।१।।

फिर भी जाएगा न दुख देखा इतना मुझे भरोसा है ।

करुणासागर ने युग-युग से दीनों को पाला पोसा है ।।२।।

करुणा ही प्रभु की ऐसी जिसने दुख-दारिद सोषा है ।

रामकृपानिधि ने दोषों को कभी नहीं भी देखा है ।।३।।

सबबिधि हीन दीन जग मोते राम कृपा रंग चोखा है ।

संतोष के राम दया के धाम इसमें नहि कछु धोखा है ।। ४।।

                           [१६३]

आनंदसिंधु दीनबंधु राम सुखधाम सुखरासी ।

रामचन्द्र रामभद्र सर्वकामप्रद अविनासी ।।१।।

नीलोत्पल तन श्याम जग अभिराम सेवक सुपासी ।

शिव अज सेवित चरन रज चाहत सुर नर यती सन्यासी ।।२।।

शरनागतपाल परमकृपाल दीनदयाल उदासी ।

सुमुख सुलोचन मम सुधि लीजै अघ अवगुन दुख नासी ।।३।।

तुम बिनु मोहिं न राखनहार सोचहु अवध निवासी ।

संतोष शरन दुखहरन दयानिधि राखो हर उर वासी ।।४।।

                             [१६४]

राम प्रभु तुम दानि शिरोमनि करुना दया अगार ।

आरत दीन के तुम रखवारे सरल समर्थ उदार ।।१।।

चरन गहेंउ मैं रामकृपानिधि सोचहु आप बिचार ।

मैं तो प्रभु बिनु काम तुम्हारे तुम ही मोर अधार ।।२।।

का गति होए नाथ हमारी जो तुम देउ बिसार ।

दीन दशा प्रभु देखि हमारी लीजे शरन में डार ।।३।।

सार-संभार जगत नहि केवल नहि परलोक सुधार ।

संतोष चहत है जनम-जनम भरि राम चरन में प्यार ।।४।।

                               [१६५]

पतित उधारन जन दुख टारन राम प्रभु अब मम सुधि लीजे ।

सरनागतपाल कृपाल प्रभू , तुम सम रंक निवाज न दूजे ।।१।।

राजीवविलोचन भवभयमोचन सब दुख दोष को दूर करीजे ।

आरत दीन अनाथ के नाथ मोरहु बाँह प्रभू गहि लीजे ।।२।।

मोहि पुकारत देर भई प्रभु कृपानिधान बिलंब न कीजे ।

निज पन सँभारि श्रीरघुनायक संतोष को शरन चरन रति दीजे ।।३।।

                                 [१६६]

राम कृपाल बड़े नत पाल जन के सब अघ शोक मिटाए ।

जेहि मग जात कबहुँ मुनि कोई तेहिं मग रामजी गीध पठाए ।।१।।

त्रिन को कुलिश, कुलिश त्रिन कारी पाहन को जलजान बनाए ।

बानर भालू पे अस कृपा ते सब प्रभू के मीत कहाए ।।२।।

खग पशु निसचर की सुनी राम अपनी दीन दशा हम सुनाएँ ।

दीनदयाल करौ अस कृपा संतोषहुँ की बिगड़ी बन जाए ।।३।।

                        [१६७]

राम प्रभु तुम सम जग में आरत दीन के गाहक नाहीं ।

वेद पुरान अरु संत कहैं सब राम प्रभू करुणामय आहीं ।।१।।

परमउदार सहजकृपाल रीझत राम न देर लगाहीं ।

दीन पुकारे द्रवहिं प्रभु जी धीर धुरंधर न धीर धराहीं ।।२।।

करि करुणा नाथ विलोकहु मो कहुँ मोरेहु सब दुख दोष नसाहीं ।

संतोष करै विनती कर जोरे राखो सदा कर कंज की छाहीं ।।३।।

                        [१६८]

रामकृपाल हैं आरतपाल कोटिन रंक नरेश कियो ।

पतितन कोटि उधारेउ राम पाप और परिताप गयो ।।१।।

मुनि नारि निकारि के शाप दियो प्रभु हरि परिताप पुनीत कियो ।

प्रनतपाल शबरी की सुन्यो मुनि दुर्लभ गति भगवान दियो ।।२।।

गीध जटायु केर बनायों संसृत हरि निज धाम दियो ।

केवट की बिगरी बनी ऐसी चरणोदक पाइ निहाल भयो ।।३।।

कोल किरात भील बनवासी अरु दंडक वन भी पुनीत कियो ।

बंधु त्रास फिरत सुग्रीव, बिनु हित सोइ कपीस कियो ।।४।।

दीन बिभीषन हीन रहा गहि बाँह शरन निज राखि लियो ।

करि करुना नाथ सुधारो मोरहु तव पद आस भरोस कियो ।।५।।

आस विश्वास एक बल तुमसे ओर तुम्हारी देखि जियों ।

दीनदयाल उदार करुणानिधि बसहु आइ संतोष हियो ।।६।।

                        [१६९]

महिमा अपार है राम प्रभू की, निगमहुँ पार न पावत हैं ।

नेति-नेति कहि निगम बखानैं, शिव अज ध्यान लगावत हैं ।।१।।

सुर मुनि सारद शेष रामायन, राम प्रभू यश गावत हैं ।

अग-जग नाथ है सब कुछ हाथ, दीन पुकारे धावत हैं ।।२।।

जब-जब भीर परै जन पे, श्रीराम न देर लगावत हैं ।

को न उजारि सकै तेहिं को, जाको राम बसावत हैं ।।३।।

दीनदयाल बड़े कृपाल, जन दुख दोष नसावत हैं ।

ये मेरे तुम मेरे कहि, गहि बाँह गले से लगावत हैं ।।४।।

दीन संग्रही श्री रघुनायक निज पुर दीन बसावत हैं ।

दीन मलीन संतोष सरीखे, गुन गन सुनि बल पावत है ।।५।।

                     [१७०]

प्रभु जी क्या निज विरद भुलाए ।

आरतहित जन प्रीति की रीति सारद शेष निगम गुन गाए ।।१।।

प्रहलाद भक्त की रक्षा को प्रभु तुमही नरहरि रूप बनाए ।

बनि वाराह तुम्हीं जग स्वामी दलि हिरण्याक्ष धरा को छुड़ाए ।।२।।

दुहुँ पग से प्रभु नापि त्रिलोकी छलि वलि तुमही सुतल पठाए ।

कच्छपरूप से तुमही स्वामी मंदराचल निज पीठ उठाए ।।३।।

मत्स्य रूप धरि दलि हयग्रीव तुमही प्रभु जी वेद बचाए ।

भक्त अम्वरीश के खातिर तुमही बिना बेर निज चक्र पठाए ।।४।।

बीच सभा में द्रुपदसुता की तुमही प्रभुजी चीर बढ़ाए ।

सुनि गजराज की करुण पुकार तुमही वाहन छोड़ि के धाए ।।५।।

गणिका अजामिल आदिक को तुम्हीं पावन करि भव पार लगाए ।

गौतम नारि अहिल्या को प्रभु तुमही परम पुनीत बनाए ।।६।।

केवट को बड़भागी कियो तुम मुनि दुर्लभ पद कंज धुलाए ।

निज कर कंज परस खग को प्रभु असुवन के जल से तू भिगाए ।।७।।

शबरी के भाग बड़े अनुराग बखानि के बेर तुम्हीं प्रभु खाए ।

सुग्रीव विभीषन से दीनन को तुमही प्रभु निज कंठ लगाए ।।८।।

जब-जब भीर पड़ी जन पे प्रभु करि कृपा तुम्ही भीर हटाए ।

कँह लगि कहौं राम प्रभु तुमही कोटिक दीन के विपति नसाए ।।९।।

रामकृपाल तुम्हीं करि कृपा दीन मलीन बनाय बसाए ।

संतोष पुकारि रहा प्रभु राम अनाथ के नाथ क्यों देर लगाए ।।१०।।

                           [१७१]

प्रभु जी मोहिं क्यों आप भुलाने ।

सारद शेष निगम आगम तव आरत हित की रीति बखानैं ।।१।।

मैं तो मंद महाखल पामर सुर मुनि श्रुति सकल अनुमाने ।

असरन सरन राम दुख हरन दीन मलीन सदा सनमाने ।।२।।

असहाय सहायक अग-जग नायक प्रनतपाल जगत पहिचाने ।

सरल सबल पुनि रीझत थोरे पढ़ि-सुनि तव गुन चित ललचाने ।।३।।

सुग्रीव बिभीषन आदिक के तव कृपा सब दुख दोष पराने ।

मैं दीन मलीन शरन रखिए प्रभु विरद न भूले सब जग जाने  ।।४।।

मम चित नाथ करौ अस कृपा जनम-जनम तव पद रति माने ।

संतोष अवलंब तुम्हीं रघुनाथ द्रवउ राजीवनयन सयाने ।।५।।

                   [१७२]

राम जी क्या विचारा क्या चित से उतारा ।

गज ने जब पुकारा धीर तूने न धारा ।।१।।

दीन होके पुकारा दुख सारा निवारा ।

तब न सोचा विचारा झट उसको उबारा ।।२।।

दीन दुखियों का सारा दुख तूने ही टारा ।

जानें जग सारा कितनों पापी को तारा ।।३।।

पाहि फँसे बिचधारा दीन सुनिके निकारा ।

अब भूले गुन सारा या वाना विसारा ।।४।।

जब पूँछा किसी ने कौन तेरा सहारा ।

मन में तुझको सँभारा किया ऊपर इशारा ।।५।।

नाम तेरा उचारा कहा वो ही हमारा ।

वही पतराखनहारा नहीं दूजा सहारा ।।६।।

कहाँ तुझको विसारा लो सिर हाथ धारा ।

हुआ मैं भी तुम्हारा, मुझको मिल जाए सारा ।।७।।

एक तूँ ही सहारा अब दे दो किनारा ।

संतोष के आन की मान रख लो हमारा ।।८।।

                  [१७३]

राम रघुवर रघुनाथ सुनेंउ बड़ी बड़ाई ।

निराधार आधार कहावत अरु असहाय सहाई ।।१।।

दीनदयाल बड़े नतपाल आरतपाल पितु माई ।

साधु संत सद्ग्रन्थ बतावत राम दीन को भाई ।।२।।

नहि बुधि ज्ञान नहीं ढ़ंग जानौं केहि बिधि सकौं बताई ।

दासहुँ जोग नहीं कछु लायक नाथ अमित प्रभुताई  ।।३।।

जग घर बाहर जोग न साईं जोग-विराग कठिनाई ।

मोसे दीन हीन कोउ गाहक होइ कहाँ सुनुवाई ।।४।।

सुनेंउ अयोग जोग जग नाहीं बनत जोग रघुराई ।

राघव तुमही दीन सनेही राखत बाँह उठाई ।।५।।

करुणा क्षमा की प्रभु तू मूरति शील दया अधिकाई ।

विरद आस ते जीवत आयों नहि बल बड़ी खोटाई ।।६।।

केहि बिधि रहौं करौं का रघुपति तुमहूँ रहे बिसराई ।

दीन संतोष न मोहिं बिसारो सोचि रहा अकुलाई ।।७।।

                 [१७४]

सब जानि रहे रघुनाथ शरन हम तेरे हैं ।

भय नहि एक तदपि रघुनंदन रचत कुचक्र घनेरे हैं ।।१।।

आन मान जन पन रखवारे एक तू नाथ हमारे हो ।

आरतपाल खल-दल-बल तोरौ दीनन के रखवारे हो ।।२।।

देर भई प्रभु बहु दिन बीते जन सुधि रघुवर लीजै हो ।

दीन संतोष कहत कर जोरे प्रभु अब देर न कीजै हो ।।३।।

                [१७५]

प्रभु जी अबहूँ सुधि नहि आई ।

जो हौं सो प्रभु राम हमारे जानहुँ मोर खोटाई ।।१।।

पतितपावन सुनि गुन करुनामय, मैं करौं नाथ ढिठाई ।

असरन सरन दीन जन गाहक राम प्रभू सुखदाई ।।२ ।।

शरन गहे की भीर हरत प्रभु छमि अवगुन बहुताई ।

कोउ सुधि लैहैं नाथ हमारी आप रहे विसराई ।।३।।

तव पद कमल की आस प्रभू जी करिहैं लोग हँसाई ।

संतोष के नाथ तुम्ही रघुनाथ राखो लाज बचाई ।।४।।

                 [१७६]

राम प्रभू एक आप सहारा ।

शरन गहेंउ था मेरे वश में रखना काम तुम्हारा ।।१।।

महापतित अघ-अवगुन खानि मैं; कब यह आप बिचारा ।

पतितपावन अघ-दोष नसावन जानत गुन जग सारा ।।२।।

जिसने भी राम उचारा प्रभु जी, उस पापी को तारा ।

जो भी तुम्हें पुकारा स्वामी उसका काज सवाँरा ।।३।।

चमका जग में उसका सितारा जिसको आप निहारा ।

दीखे जग अँधियारा प्रभु जी तू पत राखनहारा ।।४।।

दीनदयाल बिना तव कृपा मिल नहि सके किनारा ।

संतोष करै विनती कर जोरे सुधि लीजे नाथ हमारा ।।५।।

                      [१७७]

राम प्रभू हम चरण गहे हैं सुनिके तव गुनग्राम ।

पतितपावन है नाम तुम्हारा तुम हो दया के धाम ।।१।।

और नहीं है दूजा कोई जग में ऐसा नाम ।

शिव अज मुनि सब भजते हैं तुमको ही सुखधाम ।।२।।

पंकजलोचन सोचविमोचन तुम हो पूरणकाम ।

शोभा तो इतनी अनुपम है सकल लोकअभिराम ।।३।।

दीन मलीनों पे प्रभु कृपा कभी नहीं तुम वाम ।

संतोष चहै प्रभु राम दयानिधि नाम भजै अविराम ।।४।।

                       [१७८]

राम कृपालु रहैं जेहि ऊपर संकट एक न आवत नेरे ।

दीनदयाल शरनागतपाल मोहिं आस पद कंज की तेरे ।।१।।

सदा कृपालु रहौ मो ऊपर सीतारमन रघुवंश के हीरे ।

अवगुन दोष हों दूर प्रभू, तव पद रति अरु गुन हों घनेरे ।।२।।

जन सुखदायक प्रभु सब लायक सुर नर मुनि रघुपति के चेरे ।

धनु सायक हाथ धरे रघुनायक एक सहायक मेरे ।।३।।

                        [१७९]

विश्वाश्रय प्रभु राम हमारे यश कितना निर्मल ।

नारद शारद शिव आज गाएँ गुन है बड़ा विमल ।।१।।

सनक सनंदन आदिक ऋषि मुनि पद रति मांगे अविरल ।

राम-राम जो राम पुकारे जीवन हुआ सुफल ।।२।।

गुरवर का उपदेश यही है मुझमें कहाँ अकल ।

संतोष चहै प्रभु रामदयानिधि रति हो चरन कमल ।।३।।

                [१८०]

राम बिना कोउ मोर सहाई ।

निराधार को अधार एक रामदयामय भाई ।।१।।

आरत दीन मलीन के ऊपर राम कृपा अधिकाई ।

बानर भालु गीध शवरी पे प्रभु करुना वर्षाई ।।२।।

सुग्रीव बिभीषन केवट को प्रभु भेंटेउ कंठ लगाई ।

दीनबंधु सुखधाम, हरन अघ अवगुन कुटिलाई ।।३।।

मन कर्म बचन साधुता नाहीं एक भरोसा भाई ।

पतितपावन हैं राम हमारे गुनगन कृत जग छाई ।।४।।

महापतित अतिअधमहुँ को पावन करि गति दाई ।

दीन मलीन संतोष की भी अब सुधि लीजै रघुराई ।।५।।

                     [१८१]

कब आएगा राम प्रभू कृपा में खिलने का मौसम ।

जब तुम होगे नाथ मेरे जीवन-धन प्रिय प्रीतम ।।१।।

कब करुणा की होंगी बरसातें बीतेगा मेरा पतझर ।

जब सिंचित हो करुणा जल से फूल उठेगा जीवन तरु ।।२।।

कब चरणों में मम सिर होगा सिरपे तव कर उत्पल ।

तेरी विरदावलि ही प्रभु जी मुझको देती है संबल ।।३।।

वैसे तो मैं हूँ स्वामी अधमों में भी अधमाधम ।

दीन मलीनों पे करुना गाते हैं सब निगमागम ।।४।।

मेरा तो बन जाएगा करुनासागर उस पल क्षन ।

जब कह दोगे तुम भगवन संतोष भी मेरा हुआ शरन ।।५।।

                    [१८२]

गुरू तुलसी का सच्चा ज्ञान । करिए राम नाम का ध्यान ।।१।।

गाएँ जन प्रभु के गुन ग्राम । बिगड़े बनि जाएँ सब काम ।।२।।

जग में जो मिलता आराम । समझों देते सीताराम ।।३।।

जग निसार प्रभु नाम है सार । जोड़ो राम नाम से तार ।।४।।

जग में सुख परलोक सुधार । राम नाम सम कौन उदार ।।५।।

राम प्रभु जी दयानिधान । सदा कृपालु रहौ भगवान ।।६।।

सर्वकामप्रद पूरणकाम । करौ कृपा करुणामय राम ।।७।।

जपता रहूँ नाथ तव नाम । राम नाम जो सब सुखधाम ।।८।।

विनती तुमसे अग-जग नाथ । सदा सीस पे रखिए हाथ ।।९।।

बदला जग बदलै सब ज्ञान । संतोष न बदलै कृपानिधान ।।१०।।

                       [१८३]

कबहुँ न सोचौं केहि विधि दारुन भव तरि जाई ।

सरल सुगम जो मारग गुरू तुलसी राह देखाई ।।१।।

सोच नहीं कहीं भी जाऊँ नाम न छूटै भाई ।

धन मानस धन-धन गुरु तुलसी अजब ज्ञान सिखलाई ।।२।।

बालपने से मानस पढ़ि-पढ़ि नाथ चरन रति भाई ।

संतोष न छूटै नेह राम से चाहे जगत छूटि जाई ।।३।।

                     [१८४]

स्वारथ बस सब प्रीति करत जग कौनउ आस लगाई ।

आस गए फिर प्रीति कहाँ रचहिं कोटि कुटिलाई ।।१।।

तरुवर को ज्यों त्यागत सब जब फल की आस बिहाई ।

राम प्रभू अपनाय लेंइ तो छोड़त नहि जन भाई ।।२।।

राम निभावत प्रीति की रीति चाहे बनय जो आई ।

सुनि गुनि प्रभु की प्रीति की रीति संतोष रहा लुभाई ।।३।।

राम रहित जग राज न भावै चाहे मिलइ बरिआई ।

जीवन भी मैं नहि चाहँउ जो राम रहित होइ जाई ।।४।।

                      [१८५]

प्रीति लगी जो नाथ चरण में कबहुँ घटय जनि पावै ।

प्रीति बढ़ी है नाथ चरन में दिन प्रति बढ़ती जावै ।।१।।

नाथ जो हौं सो आप कृपा से होऊँ वही जो भावै ।

नाथ कठिन तव माया प्रबल मोहिं जनि कहुँ भरमावै ।।२।।

आस विश्वास सदा प्रभु तुमसे रहय न मन भटकावै ।

संतोष है जब लगि नाथ जगत में राम राम गुन गावै ।।३।।

अविरल प्रेम नाथ करुणानिधि तव पद पंकज पावै ।

तव पद अंबुज छाड़ि राम प्रभु कबहूँ न और से आस लगावै ।।४।।

                       [१८६]

जगताश्रय प्रभु राम जगत हित देखौ सोच सही ।

बिनु गुन प्रभु मैं नहि कोई साथी सब कुछ हौ तुमही ।।१।।

अपने-पराये काम न आएँ बुधि बल नाथ नहीं ।

तेरे सहारे रहौं मैं स्वामी जानौ सब का कही ।।२।।

सरल-सबल तुमसा नहि कोई होवै करौ वही ।

तुम बिनु और न राखनहार राखौ नाथ रही ।।३।।

बहु भटकेंउ प्रभु दया करौ जाते न फिरहीं ।

कहि दीजै संतोष है मेरा चरण रखा मैं गही ।।४।।

                   [१८७]

राम दयामय आस निहारूँ ले अँखियों में जल ।

दीन दुखी के प्रभु तुम साथी तुमही हो संबल ।।१।।

कोमलचित है नाथ तुम्हारा तुम हो बड़े सरल ।

खोजि-खोजि के दीन उधारेउ तारेउ तुम्हीं उपल ।।२।।

जगताश्रय प्रभु जग जन रक्षक तुमसा नहीं सबल ।

मुझको भी एक बार निहारो मैं कितना निर्बल ।।३।।

दीनदयाल दया के सागर तुम ही मेरे बल ।

मेरी दीन-दशा का स्वामी हाथ तुम्हारे हल ।।४।।

राम दयानिधि दया करेंगे आज नहीं तो कल ।

मन को मैं अपने समझाऊँ होता जाय बिकल ।।५।।

करुणासागर देर न करिए अवसर जाइ निकल ।

बिना कृपा प्रभु राम हमारे मुझको सब मुश्किल ।।६।।

कृपा अनुग्रह करिए स्वामी भूलूँ न एक पल ।

संतोष चहै मन मीन हो मेरा राम चरन हो जल ।।७।।

                 [१८८]

राम प्रभू जी द्वार तुम्हारे कबसे पड़े हैं हम ।

दीनदयाल दया के सागर दया नहीं है कम ।।१।।

सुनि के गुनगन द्वार पे आए हूँ तो बड़ा अधम ।

पतितपावन दुख दोष नसावन दशा बड़ी विषम ।।२।।

अब तक नहि एक बार निहारा ऐसा मेरा करम ।

नजर उठाके देख रहा मैं ओर तेरे हरदम ।।३।।

कम से कम एक बार निहारो आँखे कितनी नम ।

दीन जनों पे कृपा भगवन जबकी तुम हो सम ।।४।।

द्वार नहीं हम छोड़ि सकेंगे चाहे निकले दम ।

बड़े सकोची सकुचाकर ही शरन दे दिए हम ।।५।।

कह दोगे तुम करुनासागर फिर अभी नहीं किस दम ।

राम राम संतोष पुकारे राम बने हमदम ।।६।।

               [१८९]

राम प्रभू जी चरण तुम्हारे पकड़ चुके हैं हम ।

कृपा करिके हर लो भगवन जीवन में जो तम ।।१।।

तेरे भरोसे रहूँ मैं स्वामी छोड़ि के सारे गम ।

अपने दोषों को सोचूँ तो आए मुझे शरम ।।२।।

फिर भी मुझको ठुकुरा दोगे ऐसा नहीं भरम ।

पतितपावन है नाम तुम्हारा तुम कितने अनुपम ।।३।।

गुनगन को सब गाते हैं सारद शेष निगम ।

करुनामय रखि ही लेते हैं हो कोई मुझसा ही अधम ।।४।।

दीनदयाल दयानिधि स्वामी हम हैं बड़े अक्षम ।

करुनासागर की करुना से कुछ भी नहीं अगम ।।५।।

सभी दशाएँ सम हो जाएँ चाहे बड़ी बिषम ।

संतोष कहै प्रभु राम कृपा से होता सब अधिगम ।।६।।

              [१९०]

प्रभूजी अब देर न कीजे ।

वेद पुरान साधु सुर गावत दीन हितू नहि दूजे ।।१।।

बारक राम कहत तुम रीझे अघ-अवगुन सब छीजे ।

करुनासागर विरदउजागर अखिल जगत के बीजे ।।२।।

तव कृपा से राम दयामय दीन मलीन गे पूजे ।

मोरे बेर, बेर रघुनायक और न नाथ करीजे ।।३।।

मन चंचल जानो सब स्वामी देखि दशा सुधि लीजे ।

नहि निज बल प्रभु अंर्तयामी तोहिं जियाये जीजे ।।४।।

काह कहौं केहि कृपा विसारे सोच यही भी लखीजे ।

डूबत संतोष पुकारत स्वामी कर अवलंबन दीजे ।।५।।

                 [१९१]

सरल सबल प्रभु राम सरिस खोजे कहीं न मिलते हैं ।

उनको सम है मान अमान सभी का आदर करते हैं ।।१।।

गीध जटायु को भी वो पिता तुल्य समझते हैं ।

बानर-भालू केवट को भी मित्र व भाई कहते हैं ।।२।।

बिभीषन निसचर को भी राम सखा व भाई कहते हैं ।

दीन-मलीनों से रघुवर अनुराग अनोखा रखते हैं ।।३।।

राम-राम अरु ‘मरा-मरा’ दोंनो एक समझते हैं ।

मतलब उल्टा नाम कहो फिर भी नहीं रूठते हैं ।।४।।

दो आखर का सुंदर नाम राम हमारे रखते हैं ।

करुनामय अग–जग के स्वामी विनय शील गुन धरते हैं ।।५।।

‘तू’, ‘तेरे’ उनको कहते जन फिर भी वो खुश रहते हैं ।

लोग और साधू भी तो ऐसा कहने पे बिगड़ते हैं ।।६।।

राम जी सीधे-साधे हैं किसी को कुछ नहीं कहते हैं ।

गुण को देंखे राम सदा अवगुन क्षमा वो करते हैं ।।७।।

                    [१९२]

गीध जटायु को जब देखा इनको तुरत प्रणाम किया ।

भिलनी शबरी को प्रभु ने माता कहकर मान दिया ।।१।।

केवट को लोग न छूते थे गले से इनको लगा लिया ।

ऋषियों-मुनियों का रघुवर ने सदा बहुत सम्मान किया ।।२।।

मिलते ही सबको प्रभु ने हाथ जोर प्रणाम किया ।

मुनियों से जादा गीध शबरी व केवट का बखान किया ।।३।।

                          [१९३]

जिसकी कोई बात सुने ना उसकी भी गाथा सुनते हैं ।

जिसे रखे न पास कोई उसको भी पास वो रखते हैं ।।१।।

जिसको आदर मान मिले न उसका भी आदर करते हैं ।

सुनावत सहज स्वरूप किए प्रणाम भी वो सकुचते हैं ।।२।।

इससे वनवास की लीला में मुनि राम परस्पर झुकते हैं ।

वानर भालू केवट मीत परम हर्षयुत सुनते हैं ।।३।।

परम कृतज्ञ विनीत सियावर दास बड़ाई देते हैं ।

बहुत ही सीधे-साधे हैं सदा एक सम रहते हैं ।।४।।

सुर नर मुनि की बात ही क्या पशु पक्षी तक की सुनते हैं ।

ऐसे ही बातें हैं अनेक सो उन सम वही सब कहते हैं ।।५।।

                       [१९४]

वानर-भालू गीध निसाचर सबकी पैठ न और कहीं ।

राम दरबार में सबका आदर जो भी जाए बात सही ।।१।।

राम दरबार में न्याय मिला पशु पक्षी आदिक को  भी ।

दरबार खुला उनका सबके हित जो जाना चाहे जाय जभी ।।२।।

राम दरबार की महिमा न्यारी होता कोई निराश नहीं ।

सुर नर मुनि पशु पक्षी की भी सुनीं जाती गुहार यहीं ।।३।।

आरत दीन मलीन को आदर दरबार की उनके रीति यही ।

गुनगन विरद संतोष कहै रघुनाथ अनाथ के नाथ सही ।।४।।

                    [१९५]

राम कृपा को ही पंथ चितवत हौं ।

दीन को दयाल राजा राम विनवत हौं ।।१।।

असरन सरन प्रनतपाल प्रनत हौं ।

सब गुनहीन कबहूँ राम कहत हौं ।।२।।

सीताराम पद कमल अनुराग चहत हौं ।

राम गुनग्राम सुनि मोद लहत हौं ।।३।।

कृपा किए बार बहु सदा अनुभवत हौं ।

राम के बसाये मोसे बसैं बसत हौं ।।४।।

राम के सहारे मोसे रहैं रहत हौं ।

राम के बढ़ाए दीन बढ़ैं बढ़त हौं ।।५।।

मोसे दीन दूबरे को राम सुनत हौ ।

कीस कपीस ज्यों सबको फलत हौ ।।६।।

करुनानिधान दीन जन दुख हरत हौ ।

संतोष राखौ मोहूँ मोसे रखत हौ ।।७।।

             [१९६]

असरन-सरन सरन दुखहारी ।

परमकृपाल शरनागतपाल गावत गुन मुनि झारी ।।१।।

सरल मृदुलचित रीझत थोरे सियावर राम खरारी ।

डूबत जन देखौ रघुनायक केवल आस तुम्हारी ।।२।।

करुना क्षमा बल शील के सागर सुधि लीजे नाथ हमारी ।

कृपा विलोकनि सोच विमोचन लीजे मोहि निहारी ।।३।।

केहि विधि कहौं तुम अंतर्यामी जानौ राम अघारी ।

वेगि उबारो करुनासागर अति संतोष दुखारी ।।४।।

                   [१९७]

दीन को दयाल राम कृपाल तुम सम तुम नहि कोई ।

राखे हेरि दीन हीन जानै जग नहि गोई ।।१।।

सहज अघराशि जो शरन आए तज्यो नहि सोई ।

पाप ताप सोच बीते चरन गहे जोई ।।२।।

पाहि नाथ हहरि हेरि कहौं अब नयन वारि मोई ।

शबरी के बेर खावनहार बेर संतोष बेर किए अब भलो नहि होई ।।३।।

                   [१९८]

मोहि लगि जनु प्रभु कृपा विसारी ।

मन भ्रम जदपि नाथ आरत जन करि कृपा नित धारी ।।१।।

सब अपराध मोर का कहऊँ मूढ़ मलीन कुटिल कुविचारी ।

पाप निरत मति ध्यान न सपने मन कुविचार सकल अपकारी ।।२।।

साइ द्रोह करि-दसन ज्यों करनी ये गुण थाति हमारी ।

नहि कल्यान जतन नहि एको बिनु रघुनायक कृपा सुधारी ।।३।।

जानत प्रभु सब बिनहिं जनाए शील सिंधु अघ अवगुन हारी ।

समुझि निज ओर करैं सोई गति नहि कछु आन न को हितकारी ।।४।।

वेगि द्रवउ प्रभु राजीवलोचन जानकीजीवन पर उपकारी ।

संतोष के नाथ श्रीरघुनाथ वेगि हरौ दारुन दुख भारी ।।५।।

                       [१९९]

घट-घट के जाननहार तोसो काह गोई ।

आप तजे ठौर नहीं राखे और कोई ।।१।।

पाहि कहे राखे दीन शरन गहे जोई ।

बारक राम कहे कृपा वारि मोई ।।२।।

अघ-दोष कोष मोसे राखे भार ढोई ।

मोरे बेर ढ़ील किए विरद जनु खोई ।।३।।

राखिए या मारिए कीजिए सो होई ।

संतोष के आस विश्वास बल कीजै वेगि भावै जो सोई ।।४।।

                  [२००]

समरथ सुशील सुजान सिरोमनि श्रीरघुनायक जन हितकारी ।

आस किए जो भी पद पंकज तेहिं बिगड़ी रघुनाथ सुधारी ।।१।।

दीन दया बस रीझत स्वामी यदपि न जप तप मख व्रतधारी ।

वानर-भालू को किए मीत पावन गीध शबरी वनचारी ।।२।।

सकृत प्रनाम किए जो रीझत मंगलमूल राम दुखहारी ।

संतोष नमामि सियावर राम गुनगन नाम जगत उपकारी ।।३।।

                       [२०१]

रघुनायक गुनगन उजियारे ।

पूजा जप तप व्रत बिनु रीझत दीन सदा रघुनाथ पियारे ।।१।।

ईश जगदीश को तदपि सरल अति परम विनीत दया चित धारे ।

दीनन को नहि वाम बताएँ रामायन वेद पुरान पुकारे ।।२।।

पाप सिरोमनि जदपि अजामिल सुत मिस नाम पुकारत तारे ।

गणिका खग करि शबरी आदिक करुनामूरति सकल उधारे ।।३।।

शरन गहे की भीर हरत प्रभु सकहिं न देखि प्रनत मन मारे ।

भाँग से तुलसी कियो तुलसीदासहिं तुलसी मानस आप उचारे ।।४।।

बिनु हित हितू राम दयामय असरन सरन सरन रखवारे ।

संतोष कुटिल क्यों फिरत सदा, तेहिं प्रभु को चित से तू उतारे ।।५।।

                      [२०२]

प्रभूजी तू गरीबनिवाज ।

मैं गरीब तू ठाकुर मेरे हाथ तुम्हारे लाज ।।१।।

वेद पुरान अरु संत कहैं प्रभु सुनत दीन अवाज ।

अग-जग स्वामी अंतर्यामी सारत भगत के काज ।।२।।

तुम सम नाथ दीन जन पालक होन चहत अकाज ।

मैं गुमराह कहौ सो राह चाहत नहि जगराज ।।३।।

तव पद प्रीति किए जग जीवन जाय अरु ठौर समाज ।

संतोष को प्रभु नहि और भरोसा सुधि लीजे रघुराज ।।४।।

              [२०३]

हे हरि हारन जन दुख भारी ।

निज पन विरद हेतु जग स्वामी दीनन कोटि सुधारी ।।१।।

जन अपनाय कबहुँ नहि छाड़े सकल करवरे टारी ।

मीरा सूर तुलसी आदिक के कलिकालहुँ बात सवाँरी ।।२।।

ढ़ील भई प्रभु बेर हमारी बनै नहि और विसारी ।

मैं अति दीन हीन रघुनायक अघ अवगुन सब जारी ।।३।।

जन दुख निसा राम दिवाकर प्रगटउ विरद सँभारी ।

संतोष के नाथ आस विश्वास देखउ ओर हमारी ।।४।।

                 [२०४]

जाउँ कहाँ तजि पद रघुराई ।

को जग दीन मलीन को गाहक हेरि दई प्रभुताई ।।१।।

स्वारथ मीत सकल जग स्वामी हेरत बड़े बड़ाई ।

मोसे मंद मलिन मति को प्रभु और नहीं कोउ सहाई ।।२।।

सबबिधि हीन दीन जग जेते ठौर कहाँ जग साई ।

कृपावारीश तुम्हीं रघुनायक मान ठौर गति दाई ।।३।।

अघ दुख दोष ताप जरत जन कृपा वारि वर्षाई ।

संतोष के नाथ तुम्हीं रघुनाथ राखो हाथ उपाई ।।४।।

                   [२०५]

रघुपति राघव जन सुखदाई ।

आरतपाल ! सहजकृपाल ! अग-जग के तू साई ।।१।।

जग जो बड़े हुए अरु होते तुम्हरे दिए बड़ाई ।

शिव हरि विधि आदिक को प्रभु दई तुम्हीं प्रभुताई ।।२।।

घट-घट के जाननहार सुधि कियो न कोऊ कराई ।

ठौर नहीं प्रभु द्रवहु वेगिंह कहौ कहाँ हम जाई ।।३।।

आस पियास बुझै नहि रघुवर बिनु कृपा जल पाई ।

संतोष रखो प्रभु करुनासागर कृपा वारि पिलाई ।।४।।

                    [२०६]

हे राम प्रभूजी जग के स्वामी मैं अतिसय घबराया हूँ ।

दर-दर पे मैं भटक चुका नहि ठौर कहीं लखि पाया हूँ ।।१।।

तुम सबकी सुनने वाले हो सुनिके गुनग्राम लुभाया हूँ ।

सुनिके विरदावलि ही तेरी अब द्वार तेरे मैं आया हूँ ।।२।।

मुझको है दूजा ठौर नहीं दर-दर की ठोकर खाया हूँ ।

पशु-पक्षी की भी सुनने वाले भूले तुम भी भुलाया हूँ ।।३।।

अघ-दोष कोष मुझसे पोसे तुम सोच यही सरसाया हूँ ।

वानर भालू भी रखने वाले तुम सरिस तुम्हीं पुलकाया हूँ ।।४।।

अब मुझे निहारो करुनासागर क्यों देर किए अकुलाया हूँ ।

संतोष तू है मेरा कहिए तव चरन की आस लगाया हूँ ।।५।।

                           [२०७]

हे अविनासी घट-घट वासी अति प्रबल देव तव माया है ।

हे रामचंद्र हे रामभद्र नहि महिमा को लखि पाया है ।।१।।

देवन के देव हे परमदेव अग-जग में तू ही समाया है ।

सब तेरा तुमसे है स्वामी जग तूने ही उपजाया है ।।२।।

देव दनुज व मनुज सभी चरणों में शीस झुकाया है ।

तृन-कुलिस कुलिस-तृन करने वाले बल तुमसे ही बल पाया है ।।३।।

हे तारन-तरन तुमने ही पाहन को भी तराया है ।

वानर-भालू निसचर को भी मंत्री व मीत बनाया है ।।४।।

निर्बल के बल संबल अवलंब सदग्रंथों ने बतलाया है ।

हे विश्व-भरन दुख-दोष हरन डूबते को पार लगाया है ।।५।।

गज-गीध की गति को याद करो हे नाथ गिरों को उठाया है ।

जग कहता दीनदयाल तुम्हें अरु वेदों ने भी गाया है ।।६।।

हे परम सरल मृदुलचित प्रभु जी नहि ठौर कोई न साया है ।

मैं तुझे पुकारूँ हे स्वामी नहि ध्यान मेरा क्यों आया है ।।७।।

मैं दोष-कोष हूँ जान रहा इससे ही मुझे भुलाया है ।

मुझसों को पाले-पोसे तव गुनगन ने ही बताया है ।।८।।

दीन-मलीनों को रघुवर ने कभी नहीं ठुकुराया है ।

देर किए फिर भी भगवन दीनन को सदा बसाया है ।।९।।

मन-मति मेरी पावन करके दीजे कर की छाया है ।

हे दयाभवन अब दया करो संतोष बहुत अकुलाया है ।।१०।।

                         [२०८]

कृपा अनुग्रह पद प्रीति की भीख चहौं व रहौं प्रभु शरन तुम्हारे ।

संबलहीन हूँ आस यही प्रभु असरन सरन के द्वार पुकारे ।।१।।

सबबिधिहीन मलीन व दीन तव कृपा दृष्टि की आस निहारे ।

दीनदयाल शरनागत पाल, तुम बिनु प्रभु कोउ मोहिं उबारे ।।२।।

निज पन सुमिर रखो प्रभु मो कहुँ आरत दीन के राखनहारे ।

दीनानाथ एक गति स्वामी छमि अवगुन अघ दोष हमारे ।।३।।

राखो रहूँ प्रभु आरतपाल मोर भलो नहि और बिसारे ।

संतोष के नाथ तुम्हीं रघुनाथ सोचविमोचन क्यों सोचें विचारें ।।४।।

                     [२०९]

राम सिवा को मोहि उबारे ।

सुर सदग्रंथ साधु सब गावत गुन गन जग उजियारे ।।१।।

सरलता दया करुना की मूरति बारक राम उचारे ।

पतित उधारे राम दयानिधि कितनों के दुख हारे ।।२।।

निरास उदास गजराज पुकारे पल में सब दुख टारे ।

दीन मलीन के राम सहायक एक गति राम हमारे ।।३।।

जनसुखदायक श्रीरघुनायक बिनु को मोहि निहारे ।

सुमुख सुलोचन सब दुख मोचन एक बल राम हमारे ।।४।।

रहूँ नाथ रघुनाथ सदा प्रनत अभाग अघ जारे ।

संतोष सुधि कीजै राम करुनाकर बिना अब और बिसारे ।।५।।

                 [२१०]

सुर नर मुनि अरु वेद सभी राम प्रभू गुन गावत हैं ।

अग-जग नायक राम प्रभू को दीन को बंधु बतावत हैं ।।१।।

दीन संतोष गुने सुख पावत अरु मन को समुझावत है ।

राम सो नेह निबाहनहार न नाते बड़े यहू भावत है ।।२।।

वानर-भालू के राखनहार को भैया कहिके बुलावत है ।

दीनदयाल बड़े कृपालु लोकहु नेह निभावत है ।।३।।

                   [२११]

राम रघुवर नाम गुन को सहारौ ।

मोसे दीन हीन जग और का अधारौ ।।१।।

स्वारथ सने नाते नहि नित का सुधारौं ।

याते कहौं काहि निज और कोउ हमारौ ।।२।।

वेद पुरान ग्रंथ बड़ौ उजियारौ ।

बड़े सुजान हित मोसे न बिचारौं ।।३।।

तुलसीदास मानस गुरू बड़ो उपकारौ ।

पत्रिका को देखि पढ़ि सुख न सँभारौं  ।।४।।

मानस जी देत दीन सहज किनारौ ।

मोसे मतिहीन मानस हरै अधियारौ ।।५।।

अनुहरे मिटय दुख दोष व विकारौ ।

मानस जो कहे अनुभये बहु बारौ ।।६।।

पवनतनय सुधि लेउ, और न बिसारौ ।

राम पद कंज चहौं, मोहूँ निहारौ ।।७।।

गुरू को सिखावन राम दीन राखनहारौ ।

दीन संतोष राम राखे ही गुजारौ ।।८।।

             [२१२]

कब अइहो राम मोरे हमरी दुअरियाँ ।

तेरे ही सहारे रहूँ देखूँ तेरी ओरियाँ ।।१।।

माया बश भूला फिरूँ लेउ तूँ खबरिया ।

जन की खबर लेत जानै सारी दुनिया ।।२।।

वन के बहाने गए हेरि-हेरि कुटिया ।

तारे मिले दयाधाम ऐसी तोरि रितिया ।।३।।

असरन सरन होत बेर मोरी बेरियाँ ।

संतोष हमारो बनै देखूँ जब चरनिया ।।४।।

                 [२१३]

ऐसो भगवान कहाँ ।

दीन मलीन जाहिं मन भावत ऐसो श्रीमान कहाँ ।।१।।

दीनन दीनता देखि जो द्रवै ऐसो दयावान कहाँ ।

छमि अघ सरन गहे जो राखत ऐसो छ्मावान कहाँ ।।२।।

सब कुछ देये कुछ नहीं लेये ऐसो धनवान कहाँ ।

सुर नर मुनि जेहिं गुनगन गावत ऐसो गुनवान कहाँ ।।३।।

हित अनहित सबकर हित ताके ऐसो हितवान कहाँ ।

जासु महाछवि जग मन मोहै ऐसो छविवान कहाँ ।।४।।

सरल स्वभाव विनय बल आगर ऐसो बलवान कहाँ ।

भगत के खातिर बन-बन डोलै ऐसो करुनाखानि कहाँ ।।५।।

गीध को पितु भिलनी मातु बुलाये ऐसो महान कहाँ ।

वानर भालू गीध निसाचर को सनमान कहाँ ।।६।।

साधु सभा जन रज गुन भाखत ऐसो बखान कहाँ ।

प्रेम भगति बस पाये रूखो-सूखो ऐसो तृप्तमान कहाँ ।।७।।

धरम स्वरूप जासु श्रुति गावत ऐसो धर्मवान कहाँ ।

शील नेम व्रत जगत उजागर पुरुष पुरान कहाँ ।।८।।

हरि हर विधि जो सबको बिधाता ऐसो महिमावान कहाँ ।

संतोष के राम आन नहि दूजो राम समान कहाँ ।।९।।

                 [२१४]

ओ मेरे रघुनाथ मैं कैसे तुम्हें रिझाऊँ ।

भक्ति-भाव न मेरे, भाव कहाँ से पाऊँ ।।१।।

गुन हैं एक न मेरे, गुन मैं कहाँ से लाऊँ ।

करम शुभाशुभ घेरे, कैसे इन्हें भगाऊँ ।।२।।

पाप बुद्धि है मेरी कैसे स्वच्छ बनाऊँ ।

मन चंचल है मेरा कैसे इसे टिकाऊँ ।।३।।

दशरथ सी आसक्ति प्रभू जी मैं कैसे उपजाऊँ ।

मातु कौशल्या जैसे प्रभुजी कैसे लाड लडाऊँ ।।४।।

लक्ष्मण जैसा भाव समर्पण पामर कर न सकाऊँ ।

त्याग भरत सा नेह चरण में कैसे नाथ लगाऊँ ।।५।।

रिपुहन जैसी प्रीति सादगी रघुवर कहाँ से लाऊँ ।

सीता जैसे जीवन अपना कैसे तुम्हें बनाऊँ ।।६।।

केवट सा अनुराग नाथ मैं कैसे हिय जगाऊँ ।

जटायु जैसी भाग प्रभूजी कैसे भाग लिखाऊँ ।।७।।

शबरी सा विश्वास भगति नव कैसे मैं उपजाऊँ ।

हनुमत जैसे राम लखन सिय कैसे हिय बसाऊँ ।।८।।

भोले शंकर जैसे मन को कैसे राम रमाऊँ ।

गुरवर जैसा ध्यान प्रभू बिनु ज्ञान कहाँ से लाऊँ ।।९।।

करनी अपनी समुझि-समुझि प्रभु मैं तो लाज लजाऊँ ।

जनमि-जनमि बहु दूर हुए हम पास में कैसे आऊँ ।।१०।।

जैसे-तैसे जो भी बनता गुन तेरे ही गाऊँ ।

संतोष समुझि गुनगन की करनी विरद ते आस लगाऊँ ।।११।।

                   [२१५]

स्वामी मेरे राम स्वामिनी सीता माता ।

परमसरल आरतपाल बड़े दाता ।।१।।

राम दिए खाए जग राम दिए पाता ।

ध्याये जग राम को राम गुन गाता ।।२।।

अग-जग ईश हर विधिहुँ के बिधाता ।

शिव मन मधुकर चरन जलजाता ।।३।।

दीन मतिहीन जिसे जग ठुकुराता ।

पूछे नहीं बात कोई मुँह फेर जाता ।।४।।

राम दयाधाम के मन वो भी भाता ।

दीनानाथ पाहि कहि नयन जल लाता ।।५।।

तुम्हीं नाथ मेरे कहि जो बताता ।

सुनैं सीतानाथ सारी जो भी सुनाता ।।६।।

समय जाए होता क्या चाहे पछिताता ।

समय रहे मन काहे नेह न लगाता ।।७।।

राम बिना भूँखा अन बीच न अघाता ।

राम जी से नेह कर कौन घबराता ।।८।।

सुनि गुन राम जेहि मन न लुभाता ।

अचरज कहाँ जो फिरे रिरियाता ।।९।।

मणि आए हाथ कण जानि जो बहाता ।

जग जाए राम संग मन नहीं राता ।।१०।।

पानी संग दूध के मोल ज्यों बिकाता ।

राम नाम संग त्यों अघी तर जाता ।।११।।

नाम मणि धातु जन कनक बनाता ।

प्रगट प्रभाव जग भूला न दिखाता ।।१२।।

खाए फिरे सब जग काल धरि खाता ।

संतोष जान जीवन राम संग नाता ।।१३।।

               [२१६]

राम दयाधाम सुनो हम जो बताते ।

जथा मति नाथ मोरे गुनगन गाते ।।१।।

पाहन फोरि प्रहलाद न बचाते ।

कण-कण में बसे काहे कहे जाते ।।२।।

गज के पुकारे वाहन छोड़ि जो न धाते ।

बिपति पड़े जन काहे को बुलाते ।।३।।

अम्बरीष के खातिर जो चक्र न पठाते ।

अभय की आस जन काहे को लगाते ।।४।।

शबरी के बेर विदुर साग जो न खाते ।

प्रेम के ही भूंखे राम काहे कहलाते ।।५।।

द्रुपदसुता की जो चीर न बढ़ाते ।

कहते क्यों लोग जन लाज हो बचाते ।।६।।

सुग्रीव बिभीषण आदिक गले न लगाते ।

असरन-सरन दीनानाथ क्यों कहाते ।।७।।

केवट से जो निज पाँव न धुलाते ।

चरणों के रज की आस न लगाते ।।८।।

वन-वन खोजि जन ठाँव जो न जाते ।

कहते क्यों लोग राम जन सुधि लाते ।।९।।

वानर भालु को जो सखा न बनाते ।

कहते क्यों लोग राम गिरे को उठाते ।।१०।।

गीध को तात शवरी मातु न बुलाते ।

कहते क्यों लोग सादर दीन अपनाते ।।११।।

भक्तों के अपने जो मान न बढ़ाते ।

परमसरल सेवकपाल क्यों कहाते ।।१२।।

अहिल्यादि को जो पुनीत न बनाते ।

पतितपावन जन नाम क्यों धराते ।।१३।।

पाहन को ज्यों जलजान न तराते ।

कहते क्यों लोग गुनी गुनहीन को बनाते ।।१४।।

दीन दाहिने जो न उजरे बसाते ।

कहते क्यों लोग राम हारे को जिताते ।।१५।।

गहि बाँह दीनों की जो नेह न निभाते ।

दीनबंधु दीनों के सनेही क्यों कहाते ।।१६।।

पतितों से जो तुम मुँह फेर जाते ।

मोसे दोष-कोष अघी कहीं न समाते ।।१७।।

सुनते न दीनों की जो उन्हें ठुकुराते ।

मोसे दीन-मतिहीन किसको सुनाते ।।१८।।

गुनगन नाथ जेते कहे न सिराते ।

तुम सम तुम जानि जन पुलकाते ।।१९।।

सबबिधि हीन दीन विरद बल पाते ।

संतोष चित करौ राम वेगि बहु नाते ।।२०।।

                [२१७]

राम दयाधाम सुनत सबकी, कबहूँ वो मेरी भी सुनैंगे ।

दीनदयाल शरनागतपाल, कबहूँ मेरी बाँह गहैंगे ।।१।।

रामकृपा से मोरे भी, सारे अघ दुख दोष दहैंगे ।

कबहूँ करुनामय करि करुना, मम सिर निज कर कंज रखैंगे ।।२।।

मेरे हिये में भी कबहूँ, अनुज सहित सिया राम बसैंगे ।

संतोष भी है मेरा कबहूँ, राम बड़े कृपाल कहैंगे ।।३।।

                   [२१८]

हमें तो है सियावर राम का सहारा ।

सुर मुनि गुन गाए जिनका जग सारा ।।१।।

शवरी गीध जटायु जिसने तारा ।

बन-बन हेरि जन जिसने सँभारा ।।२।।

हर कोई जिनके आगे हाथ है पसारा ।

अघ-दोष-कोस जिसने सहज उधारा ।।३।।

जिसने भी आर्त होके राम को पुकारा ।

दीनबंधु दीनानाथ उसको उबारा ।।४।।

राम जी का रूप लगे हमें अति प्यारा ।

जेहिं पद रज मन चाहे हमारा ।।५।।

जेहिं ध्याये जग गुन गन उजियारा ।

जासु नाम रवि मेटे जग अधियारा ।।६।।

प्रनत अभाग दोष दुख जिसने जारा ।

सरल सबल जो अनघ उदारा ।।७।।

राम को पियारे दीन वेद है पुकारा ।

दीनन की सुधि लेत लेंगे भी हमारा ।।८।।

जेहि भजे भगति न रति संसारा ।

संतोष भजु राम तजि बिषय विकारा ।।९।।

                [२१९]

केहि विधि मोर बनै रघुराई ।

साधनहीन दीन मैं स्वामी जानत नहि चतुराई ।।१।।

साधनयुत के सब कोई गाहक कोटिक मिलैं सहाई ।

मोरे एक तुम्हीं रघुनायक जानौ सब न झुठाई ।।२।।

असहाय सहायक राम प्रभू तुम रीति सदा चलि आई ।

संतोष की बनय प्रभु तोहिं बनाए और नहीं को उपाई ।।३।।

                  [२२०]

बिनु प्रभु कृपा न बनिहैं बात ।

साधन हीन भजन नहिं जानौं गुन नहि एक दिखात ।।१।।

ज्ञान विराग भगति नहि मोरे अवगुन कहे न सिरात ।

दुखप्रद बिषय कुमारग जेते मन तेहिं देखि लुभात ।।२।।

प्रभु पद प्रीति किए बिनु जीवन दिन प्रति जात नसात ।

संतोष बिना प्रभु राम कृपा नहिं मारग एक बुझात ।।३।।

                  [२२१]

जौ सुनिहौ न राम मोर सुनेगा कवन ।

दीन को भाई पितु-माई दुख हरन ।।१।।

सुनेंउ गुनग्राम राम दया को भवन ।

प्रीति पुनीत रीति दीन को शरन ।।२।।

करुनानिधान शील कहै को वरन ।

अघ-दोष-कोष राखि धाम को भरन ।।३।।

निज ओर देखि कहौं नहीं को जतन ।

कृपा सो भलो नाथ कृपा बिनु पतन ।।४।।

दीन मलीन राखै बोलै को बचन ।

तेरी बाँह बसि आए ऐसो चलन ।।५।।

जानि मानि कहौं मोहिं राम को चरन ।

राजिवनयन देखे जाये, जिय की जरन ।।६।।

सबबिधिहीन जानि कृपा को सदन ।

संतोष कहौ लीन्हेउ तुमहूँ शरन ।।७।।

                [२२२]

मोसे दीन मलीन को गाहक नहि कोउ और दिखाए ।

कूर कपूत नहीं कछु लायक उन्हहूँ राम अपनाए ।।१।।

नहि को मानै नहि को जानै दुनिया दीन बराए ।

सियावर राघव दीन रखैया राम को दीन सुहाए ।।२।।

बानर भालू गीध रखैया राम सो आस लगाए ।

मैं रघुवर को रघुवर मेरे कहि गुनि मन सुख आए ।।३।।

तुलसीदास मानस गुर सिखये गुन गन कहि समुझाए ।

दीन सगे तजे नहि कबहूँ कहि निज उर ते लगाए ।।४।।

कहाँ मैं जाऊँ काह बताऊँ प्रभु तुम्हरे बिसराए ।

जग में रहौं कहौं जग स्वामी नहि बल बसे बसाए ।।५।।

बहु जन गावैं नाम गिनावैं बहु पहिचान बतावैं ।

जानत छूछे बात न पूछैं खलजन कछुक सतावैं ।।६।।

जान पहिचान जगत का करिये मन नहि लखत लखाए ।

यह जग जाल बड़ा जंजाल बाढ़त और बढ़ाए ।।७।।

जान पहिचान बनय रघुवर सो जग जीवन फल पावौं ।

दीन संतोष राम निज जानैं फिरि न बहुरि पछितावौं ।।८।।

                    [२२३]

राम रघुवर रघुनाथ निज विरद सँभारो ।

दीनबंधु दीनानाथ गुनगन चित धारो ।।१।।

पाहन खग केवट किए पावन कोल भील वनचारो ।

वानर भालु दीन जग जानै कियो जगत सो न्यारो ।।२।।

दीन मलीन अघी अघ नाना जानत नहि व्यवहारो ।

साधु संत सदग्रंथ बतावैं सहजहिं दिहेउ किनारो ।।३।।

शील स्वभाव बिबस गति दीन्हेउ केहि नहि आप बिचारो ।

दीन संतोष ओर अब देखउ कहि निज राम पुकारो ।।४।।

                      [२२४]

ओ रघुवर रघुनाथ गुनगन जग उजियारे ।

तुलसीदास मानस गुर सिखये राम को दीन पियारे ।।१।।

केहि नहि रखे कहे नहि आपन दीन देखि नहि टारे ।

कोल किरात भील खग भालू वानर आदि भी तारे ।।२।।

सहज सनेह दीन सो स्वामी कब देखे मन मारे ।

करत प्रनाम बतावत दीन केहि नहि आप निहारे ।।३।।

दीन संतोष एक गति तुम ही सब कुछ हाथ तुम्हारे ।

कृपा वारि बिनु धान जिमि सूखत बनय नहि और बिसारे ।।४।।

                      [२२५]

ओ रघुनन्दन राम जानत तदपि जनावौं ।

तुम बिनु और नहीं रघुनाथ कहि निज जाहिं बतावौं ।।१।।

दीनबंधु नहि और सुनैया याते तुम्हहिं सुनावौं ।

सबबिधि हीन मलीन के गाहक मोहि जनि नाथ भुलावौ ।।२।।

दीन मलीन गुनहीन सनेही सुनि गुन गुनि बल पावौं ।

नहि निज बल नहि संबल कोई तुम बिनु केहिं मैं भावौं ।।३।।

आस विश्वास एक बल तुमसे गुन तेरे ही गावौं ।

दीन संतोष तभी परितोष निज कहि राम जनावौ ।।४।।

                      [२२६]

राम दयाधाम कब शरन लगाओगे ।

सब बिधि जोग अपने नाथ कब बनाओगे ।।१।।

काम क्रोध राग द्वेष भेद-बुधि नसाओगे ।

अघ ओघ दोष तम घेरे कब मिटाओगे ।।२।।

कृपा दिनेश नाथ कब प्रगटाओगे ।

पढ़े सुने कहे जो साँची कर दिखाओगे ।।३।।

मति बासन देखि कपट कलई कब छुड़ाओगे ।

साँची प्रीति पद कमल कब उपजाओगे ।।४।।

बालपने चितए मोहि नेह सो निभाओगे ।

प्रीति रूचि दिए मानस नेह न घटाओगे ।।५।।

जाने नहीं माने और जानि निज बराओगे ।

आस विश्वास लिए मन न गिराओगे ।।६।।

भटकि थके नाथ नहि भटकाओगे ।

गिरे जानि दीन निज हाथ सो उठाओगे ।।७।।

मोरे अघ दोष देखि नहि सकुचाओगे ।

बीच समाज राखि कंज कर उठाओगे ।।८।।

विरद की रीति प्रीति दीन सो दिखाओगे ।

दीन संतोष बल और भी बढ़ाओगे ।।९।।

                 [२२७]

मैं राम के द्वार भिखारी ।

सरल समर्थ साहिब रघुराज गुनगन कहत हँकारी ।।१।।

सहजकृपाल पुनि दीनदयाल याते ठाढ़ दुआरी ।

बिनु माँगे मिलै जेहि द्वार तहाँ मैं खड़ा नयन लिए वारी ।।२।।

प्रगट जग बानि बड़े दिन दानि दीनन सदा सुधारी ।

पवन को पूत बड़ी करतूत दीन राम सरिस हितकारी ।।३।।

भरत लखन रिपुसूदन, करुनामयी महतारी  ।

सुधि कहिए नाथ सो वेगिंह बलि जाऊँ सहज उपकारी ।।४।।

दीनबंधु रघुनाथ कृपानिधि गुनगन विरद सँभारी  ।

संतोष को दुख तम राम दिवाकर, प्रगटउ अघ-दोष के मेघ बिदारी ।।५।।

                  [२२८]

राम दयाधाम को सुनाएँ ।

कासे कहें क्या हम कहाँ लगि गाएँ ।।१।।

दूजा कौन सुनैं तो का बनि जाए ।

जानैं रघुनाथ मेरे बिना ही जनाए ।।२।।

करुना क्षमा सागर रखैं कब तक भुलाए ।

दयासागर को ही मुझपे दया जो न आए ।।३।।

दीन हीन जाएँ कहाँ हँसैं सब हँसाएँ ।

कहें रघुवीर से तो आँखे भरि आएँ ।।४।।

करुनामय को करुना कभी आ ही जाए ।

संतोष बनय केवल राम के बनाए ।।५।।

                 [२२९]

राम दीनबंधु तातु-मातु भई बड़ बेरा ।

सब दूर तुहीं नाथ सदा आरत नेरा ।।१।।

सदा दीन दाहिने मुँह नहीं फेरा ।

बल विश्वास तव और नहीं मेरा ।।२।।

जन दुख निशा को नाम रवि तेरा ।

निशा जाए संतोष कृपा ही सवेरा ।।३।।

                 [२३०]

दोषों का ठिकाना बहोत पापी मैं माना ।

पतितों को पावन करनें का वाना ।।१।।

गुन-गन उजियारे नाथ कौन नहीं जाना ।

चरन तजि मुझे स्वामी नहीं एक ठिकाना ।।२।।

होके सोचविमोचन मम हित सोच ठाना  ।

रामदयाधाम दया अब तो दिखाना ।।३।।

संतोष कहै नाथ मत देर लगाओ  ।

मैं तो खुद भूला स्वामी मुझे न भुलाओ ।।४।।

                    [२३१]

दोष अवगुन घनेरे ।

सदगुण नहीं एक कलि अवषाद घेरे ।।१।।

कबहुँ न नाथ रघुनाथ तुम प्रनत दोष हेरे ।

दीनदयाल कृपाल फिर आज मम बेरे ।।२।।

जाउँ कहाँ कहौं केहिं सुनै कौन टेरे ।

कहौं सतिभाय पतियाय नाथ बिना अब देरे ।।३।।

नहीं दूजा सहारा एक बल आस तेरे ।

रहूँ नाथ करो चित कहि संतोष मेरे ।।४।।

             [२३२]

कितनों अधम उधारे कभी कुछ न बिचारे ।

गीध पाहन भी तारे भाग सबके सवाँरे ।।१।।

दीन जब-जब पुकारे धीर तूने न धारे ।

दीन दुखियों के सारे दुख तू हीं निवारे ।।२।।

आज बार हमारे अघ-अवगुन बिचारें ।

जब तू हीं बिसारे कौन मुझको निहारे ।।३।।

रहे मन मारे होके शरन तुम्हारे ।

देखा ना सुना जानौ का कहे ही हमारे ।।४।।

रामदयाधाम रहूँ तेरे ही सहारे ।

संतोष तजि आस सबकी राम को पुकारे ।।५।।

             [२३३]

प्रभु तुमको ही ध्याये सारा जग गुन गाए ।

स्वामी विरद लुभाए हमें पास बुलाए ।।१।।

चरन तजि ठौर नहीं कहाँ हम जाएँ ।

सबकी बनत बनैं तेरे ही बनाए ।।२।।

मति गुन नाथ नहीं कहाँ लगि सुनाएँ ।

जानौ रघुनाथ का मेरे ही जनाए ।।३।।

आस लिए देखौं नाथ बाल जिमि माएँ ।

संतोष की भलाई नहीं नाथ तव भुलाए ।।४।।

             [२३४]

लिखत विनय पद जब मन लाए ।

जानत-सुनत क्या मोहि रघुनाथ सपना एक अनूप दिखाए ।।१।।

आवत दिखे ब्योम-मारग ते उमा समेत उमा पति भाए ।

ब्याल बिशाल देखि मन सहमउ जानि उमापति बेष दुराए ।।२।।

करि प्रनाम कर जोरि कहेंउ सोइ, सब जानत रघुनाथ बताए ।

होइहैं तोर कामना पूरण कहि शिवशंकर मोहि समुझाए ।।३।।

नीच संतोष काम भए पूरण भगति–दरश हित नहि कहि पाए ।

सोचत गुनत सपन सोइ सुंदर राघव अजहूँ मन पछिताए / हर्षाए

 ।।४।।

                    [२३५]

कहँउ सतभाय नाथ सदगुन नहि हेरे ।

जप तप साधन ऐकौ नाहीं मन मानय हम तेरे ।।१।।

निज करनी से नहि कछु आसा नेक शंक नहि घेरे ।

विरद स्वभाव शील गुन तव प्रभु, हैं कारन यहि केरे ।।२।।

बारक राम कहत तुम तारे शरनागत नहि फेरे ।

करुनासागर जन हित आगर दीनन को अति नेरे ।।३।।

दीन मलीन के नहि कोई गाहक सदा सुनत तुम टेरे ।

राखौ आन लाज रघुनाथ कहि संतोष भी मेरे ।।४।।

                    [२३६]

राम रघुनाथ कब दरश दिखाओगे ।

मोसे दीन हीन पतित को भी अपनाओगे ।।१।।

हेरि-हेरि मिले दीन मोरे ढिग भी आओगे ।

मैं तो खुद भूला स्वामी और न भुलाओगे ।।२।।

मोह निशा सोए हम बोलि कब जगाओगे ।

करुनानिधान ! देखो आए हम बुलाओगे ।।३।।

युग-युग की रीति प्रतीति सो निभाओगे ।

महाधम मोसे राम गले से लगाओगे ।।४।।

राखे जहाँ कोटि खल खेरे सो बसाओगे ।

दीन-हीन टारे नहीं तारे ही जनाओगे ।।५।।

यासे दोष कोष पाले टाले न कहाओगे ।

निज पन लागि मोहूँ अपना बनाओगे ।।६।।

महाखल जानि संतोष जो दुराओगे ।

साधु सदग्रंथ वेद कहे को लजाओगे ।।७।।

             [२३७]

जय सीतापति जय रघुराई । अनुपम रूप अमित प्रभुताई ।।१।।

रूपसिंधु सीकर जग छाई । निरखत बनत मनोहरताई ।।२।।

जन चकोर जिमि चंद्र सुहाई । रामचंद्र यह हेतु कहाई ।।३।।

धनुष वाण तूणीर सुहाई । जन मन भावत जन सुखदाई ।।४।।

महाछवि देखि अनंग लजाई । मुनि जन मन प्रभु लेत चुराई ।।५।।

सियावर राम जगत सुखदाई । जन विशेष कृपा अधिकाई ।।६।।

सुमिरत राखत सखा बनाई । योग अरु क्षेम निभावत भाई ।।७।।

ठौर नहीं जग नहिं सुनवाई । नहिं कोइ आस न एक उपाई ।।८।।

दीन मलीन बिगत चतुराई । सबबिधि हीन रहत दुख पाई ।।९।।

ताको विरद बुलावत भाई । रामभद्र गुन गन समुझाई ।।१०।।

दीनबंधु असहाय सहाई । राखत दीन हीन सुख पाई ।।११।।

राम भजो जग आस बिहाई । रामचंद्र सो आस लगाई ।।१२।।

प्रनतपाल कृपा दुख जाई । दीनदयाल दीन गति दाई ।१३।।।

युग युग रीति पुनीत सुहाई । राखे राखत दीन बजाई  ।।१४।।

पाहि संतोष रखो रघुराई । कृपामय कृपा बरसाई ।।१५।।

                 [२३८]

रविकुल रवि अब उवौ सुहाई ।

मम अघ दोष घने घन कारे कृपा करि बिदराई ।।१।।

सहस कोटि रवि तेज विराजै जग जीवन गति दाई ।

सब बिधि हीन दीन मैं स्वामी नहि बल और उपाई ।।२।।

जग दुख तम तुम बिनु रघुनायक कबहुँ न नाथ नसाई ।

परम सुजान दीन जन पालक कृपासिंधु रघुराई ।।३।।

बल संबल अवलंब एक तुम निज पद कमल लगाई ।

दीन संतोष मोह निस सोए राखो राम जगाई ।।४।।

                  [२३९]

मोह निर्मूलिनी कृपा रघुनाथ की ।

मोह रजु गाँठ खोलै नहीं जीव हाथ की ।।१।।

देंह गेह नहीं जग बात करै ज्ञान की ।

माया बस भूला फिरै गति अनजान की ।।२।।

मायाधीश राम जग जीवन जानकी ।

छोह बिनु छूटै नाहीं बल अपान की ।।३।।

रहत निसोच आस किए निज नाथ की ।

सुसाहिब राम और बल गुन गाथ की ।।४।।

             [२४०]

सीतानाथ रघुनाथ, पाप ताप हारी  ।

द्रवउ रघुवंशमणि, धनुष वाण धारी ।।१।।

ताड़का को भेज्यो धाम, दीनबंधु तारी ।

मुनिराज उर सोच, दिहेउ वेगि टारी ।।२।।

चरण रज पाय भई, पाहन से नारी ।

जनक पुर जाय वरेउ, जनकदुलारी ।।३।।

केवट निषाद गीध, शबरी बिचारी ।

दीनपाल सुधि लिहेउ, दीन हितकारी ।।४।।

बानर भालू भील, आदि बनचारी ।

केहि नहिं राखे किये, केहि न सुखारी ।।५।।

सुग्रीव बसत वन देखि दुखारी ।

निज कर राखि लीन्हेंउ, दिहेउ दुख जारी ।।६।।

विभीषन पाहि कहेउ, दीन दुख हारी ।

गहि बाँह राखि लीन्हेउ, मेटेउ दुख भारी ।।७।।

कोटि गरीब राखे बिगरी सु़धारी ।

दीन संतोष दीन्हेंउ, निपट बिसारी ।।८ ।।

              [२४१]

दीनबंधु रघुनाथ दीन हितकारी ।

जन हित किए जात, बिगरी बनावैं बात

जन हित सहि लेत दुख सुख गारी ।।१।।

जग नहीं पूछै बात, पास गए सकुचात

निज कहि राखि लेत, जन दुख हारी ।।२।।

राज निज छोड़ि दीन्हेंउ, जन हित बन लीन्हेंउ

हेरि हेरि मिले जाय, जन सुखकारी ।।३।।

गीध को कह्यो तात, भिलनी बुलायो मात,

आदर मान देत, शील गुन धारी ।।४।।

सुग्रीव अभय कीन्हेंउ, विभीषन राज दीन्हेंउ

बानर भालू भील, राखे बनचारी ।।५।।

गरीब को ठौर ठाम, शरन तिहारो धाम

दीन संतोष देखो, द्वार को भिखारी ।।६।।

                 [२४२]

प्रीति पुनीति राम रघुवर को साधु सदग्रंथ बतावत हैं

दीन मलीन नहीं जग गाहक निज पुर राम बसावत हैं ।।१।।

दीन संग्रही श्रीरघुनायक कबहुँ न नेह घटावत हैं ।

दीन मलीन संतोष सरीखे गुनगन सुनि बल पावत हैं ।।२।।

                   [२४३]

शील सनेह राम रघुवर को साधु मुदित मन गावत हैं ।

नहिं जग गाहक दीन को कोई रामजी नेह निभावत हैं ।।१।।

ये मेरे तुम मेरे कहि गहि बाँह गले से लगावत हैं ।

दीन मलीन संतोष सरीखे राम सदा अपनावत हैं ।।२।।

                    [२४४]

राम रघुनाथ विरद खोई या भुलाई है ।

गई बहोरि राम बड़ी प्रभुताई है ।।१।।

सेवक हनुमान जैसे लखन जैसे भाई हैं ।

दीन जन प्रीति रीति गुन अधिकाई है ।।२।।

समर्थ उदार दया करुणा बहुताई है ।

दीन हीन राखे सदा कृपा वर्षाई है ।।३।।

मोरे बेर ढ़ील बड़ी भई रघुराई है ।

तेरे बल बसि आए और न उपाई है ।।४।।

जगत उजारै मोसे नहिं ठौर सुनुवाई है ।

राम राजा सरकार दुहाई है दुहाई है ।।५।।

ओर तेरी देखि जिओं जानौ का झुठाई है ।

रुचै सोइ करो नाथ और न सहाई है ।।६।।

दीन संतोष छमहुँ कहेंउ करुवाई है ।

हमरे हँसी में राम तोहरो हँसाई है ।।७।।

               [२४५]

दीनबंधु ठाकुर मेरे राम रघुराई हो ।

मोसे दीन दूबरे के संबल सहाई हो ।।१।।

मोको कोऊ कहूँ नाहिं जानौ का जनाई हो ।

मोरे एक तुहीं गति जैसे शिशु माई हो ।।२।।

दशा देखि चित करौ राखो न भुलाई हो ।

कासों और कहौं नाथ कहाँ सुनुवाई हो ।।३।।

युग-युग की रीति जानि विरद बल पाई हो ।

कहौं बेरि जनि करौ कृपा वर्षाई हो ।।४।।

जैसो नाथ तेरो राखो बिगड़ी बनाई हो ।

दीन संतोष राखो अवध बसाई हो ।।५।।

                [२४६]

श्रीरघुनाथ मोरि सुधि लीजे ।

साधु संत सदग्रंथ कहे जो, गुनगन हेरि विरद चित कीजे ।।१।।

मैं नहिं दीन बंधु नहिं या तो, सत्यसंध सही कहि दीजे ।

दीन न मैं दयालु न या तो, जो सो सोधि सही करि दीजे ।।२।।

सीतानाथ दास तजि तीजी, जो मोहिं आस रुचै सो करीजे ।

जो हौं तोर मोर रघुनायक, अब दुख दोष हरन करि लीजे ।।३।।

केहि बिधि कहौं दीन हित स्वामी, नहि कछु मोहिं प्रभु सूझ परीजे ।

दीन संतोष दोष दुख बढ़िहैं, जो रघुवर अबहूँ न पसीजे ।।४।।

               [२४७]

राघवजी मुँह जनि फेरो ।

दीन मलीन हीन सब भाँती, जो हौं सो प्रभु तेरो ।।१।।

जेहि गुन शील राखि आए अब लौ, राखौ और न मेरो ।

विरद पुनीति रीति युग-युग की, बढ़ै सो करो सबेरो ।।२।।

दीन संतोष विरद निज बारक, ओर हमारी हेरो ।

रघुकुलनायक मोर सहायक, करौ नाथ निज चेरो ।।३।।

             [२४८]

जग जीवन दिन-दिन रह्यो बीत ।

श्रीरघुनाथ नाथ सब जानौ, मन नहिं भयो पुनीत ।।१।।

साधु संत सदग्रंथ कथा सो, भई नहिं सहज समीति ।

जप तप साधन नहिं मन लागत, जग रूचि जग प्रतीति ।।२।।

आलस अरु प्रमाद बिबस मन, नेम नहीं पद प्रीति ।

दीन संतोष करुनामय राघव, आस रही एक रीति ।।३।।

               [२४९]

दीनबंधु रघुनाथ ठाकुर हमारे हो 

मोसे दीन दूबरे के एक सहारे हो ।।१।।

जग नहीं पूछै बात हेरि उजारे हो ।

दीन हीन राखनहारे जग उजियारे हो ।।।।

तेरे बल जीत गए कितने ही हारे हो 

सबकी सुननहारे केहि न उबारे हो ।।३।।

कोटि गरीब राखे बिगरी सुधारे हो ।

असरन सरन मोहि निपट बिसारे हो ।।४।।

दीन संतोष एक तुमको पुकारे हो 

दीनदयाल बनय तेरे ही निहारे हो ।।५।।

               [२५०]

अग जग नाथ रघुनाथ माता जानकी ।

आस न विश्वास मोहि केहू और आन की ।।१।।

जानौं नहीं गूढ़ बात ज्ञान विज्ञान की ।

उपनिषद शास्त्र आदि वेद पुरान की ।।२।।

जप तप नहीं बल एकौ अपान की ।

दास एक खास किए बल गुन गान की ।।३।।

दीन हीन प्रीति रीति करुनानिधान की ।

दीन मलीन राखे शरण पद त्रान की ।।४।।

दीनबंधु सुनै जग साधु सुजान की ।

दीन संतोष तुहीं मोसे अनजान की ।।५।।

चाह नहीं नाथ मोहि गति निरबान की ।

निज करि राखो सुधि करि निज वान की ।।६।।

           [२५१]

दीनदुखहारी राघव अवधविहारी ।

ममता बहुत नाथ जन पे तुम्हारी ।।१।।

बानर भालू भील गीध बनचारी ।

जगत पूज किए आप शारंगधारी ।।२।।

रीति पुनीत प्रीति दीन हितकारी ।

दीन संग राखे धाम दिए सुखकारी ।।३।।

दीन मलीन हीन परम अनारी ।

मोसे तुहीं पाले पोसे परम बिकारी ।।४।।

दीनबंधु तुहीं एक मोर गोहारी ।

देखौ रघुनाथ अब ओर हमारी ।।५।।

दीन संतोष राम जनकदुलारी ।

पितु-मातु चित करौ जानि दुखारी ।।६।।

            [२५२]

दीनबंधु रघुनाथ, सीतापति राम हो ।

छवि सीकर छाई जग, ललित ललाम हो ।।१।।

रूप अनूप लखि, कोटि शत काम हो ।

लाजै सुर मुनि जग, लोचनाभिराम हो ।।२।।

दीन हीन राखनहारे, बल गुन धाम हो ।

मोसे दीन दूबरे के, सब कुछ राम हो ।।३।।

कहाँ जाउँ कासो कहौं, पूरणकाम हो ।

असरन सरन देव, जग विश्राम हो ।।४।।

मोरे बल अवलंब, पद कंज ठाम हो ।

दीन संतोष विरद, बल गुन ग्राम हो ।।५।।

कृपा कोर कीजै अब, दीनन न वाम हो ।

सदा दीन दाहिने, मोरे राजाराम हो ।।६।।

              [२५३]

राघव मोरे दीन हितैषी ।

जेहि दीनन कोई बात न पूछै जग करै ऐसी तैसी ।। १ ।।

तेहि दीनन गहि बाँह निवाजत कुशल निभै कहौ कैसी ।

देत-दिवावत मान सुधारत बिगरी हो चाहे जैसी ।। २ ।।

पलक नयन जिमि दास को राखत मेटत सकल अनैसी ।

दीन संतोष निज धाम बसावत रीति कहीं नहीं ऐसी ।। ३ ।।

                    [२५४]

जय रघुनंदन अग जग वंदन सीतापति श्रीराम की ।

दशरथ सुवन कौशल्यानंदन रघुवर ललिल ललाम की ।।१।।

राजीवविलोचन आरतिमोचन शोभा सुख गुन धाम की ।

परम मनोहर हरि हर मनहर सकललोक अभिराम की ।।२।।

अगजग नायक दीन सहायक सकललोक विश्राम की ।

सुर मुनि रंजन खल दल गंजन दायक जग आराम की ।।३।।

परम उदार विदित संसार  जन मन पूरणकाम की ।

वानर भालू गीध रखैया कोमलचित तन श्याम की ।।४।।

भरत लखन रिपुसूदन सेवित अतुलित महिमा नाम की ।

सरल सुशील शील बल सागर हनुमद चित पग ठाम की ।।५।।

आरत दीन मलीन को गाहक वेद विदित गुनग्राम की ।

दीन दाहिने करुणासागर संतोष से पालक वाम की ।।६।।

                  [२५५]

जय श्रीराम दीन दुख हारी । सरल सबल सुंदर सुखकारी ।।१।।

साधु संत सुर देखि दुखारी । पठए धाम खलहुँ हितकारी ।।२।।

रोग दोष दुख संकट टारी । करत सखा सुर साधु सुखारी ।।३।।

दया क्षमा करुणा गुन भारी । राखत दीन मलीन सुधारी ।।४।।

चरन शरन तजि कहौं पुकारी । नहि गति और रघुवीर खरारी ।।५।।

सीतानाथ धीर व्रत धारी । जन दुख तम रघुनाथ तमारी ।।६।।

जेहि गुन शील महाखल भारी । राखे राघव अवध विहारी ।।७।।

सोइ गुन शील वेगि चित धारी । करुणासागर लेहु निहारी ।।८।।

सीताराम पिता महतारी । नहि दूजी प्रभु आस तुम्हारी ।।९।।

राम दीन संतोष गोहारी । राखो आरतपाल उबारी ।।१०।।

                    [२५६]

जय रघुवर जय राम धनुर्धर । सुंदर श्याम सुशील सियावर ।।१।।

मंगल मूरति रूप मनोहर । सोहत सुंदर शारंग कर सर ।।२।।

मंजु मराल बसत जन उर सर । मोहत साधु संत बिधि हरि हर ।।३।।

चरण कमल जन मुनि मन मधुकर । तारन तरन होत चिंतन कर ।।४।।

भरत लखन कपि आदिक अनुचर । सीताराम रूप सचराचर ।।५।।

अगुन सगुन अज अमित अगोचर । अजर अमर सुखनिधि परमेश्वर ।।६।।

ज्ञान विज्ञान सकल सदगुन घर । दीनदयाल प्रनत हित तत्पर ।। ७।।

पुरुष पुराण अनूप भूपवर । माया मानुष सोहत नरवर ।।८।।

बानर भालु आदि बहु बनचर । दीनबंधु राखे सब निज कर ।।९।।

दीन संतोष बसहु उर अंतर । परम उदार दीन आरति हर ।।१०।।

                  [२५७]

गावो रे गुन दशरथ लाल के ।

रघुकुल भूषण अग जग जीवन, दीनन के प्रतिपाल के ।।१।।

सुंदर वदन कौशल्या निरखत, मन मानस मंजु मराल के ।

कैकयसुता सुमित्रा हर्षित, अगणित चरित रसाल के ।।२।।

खेलत खेल खिलावत पूप, राघव दीनदयाल के ।

भरत लखन रिपुसूदन सोहत, संग सखा सब बाल के ।।३।।

शोभाधाम मदन मद गंजन, सागर दया विशाल के ।

अवध गलिन में बिचरत रघुवर, जन मन करन निहाल के ।।४।।

गुरू वशिष्ठ सहित पुरजन जन भाग्य सराहत भाल के ।

दीन संतोष पुलकि मन गावत, गुनगन सहज कृपाल के ।।५।।

                [२५८]

चलो मन अयोध्या सरजू तीर ।

दरश परस मज्जन सुखदायक, पापविमोचन नीर ।।१।।

भरत लखन रिपुसूदन सोहत, बिहरत जहँ रघुवीर ।

कर सर चाप मुकुट मणि धारे, सुंदर श्याम शरीर ।।२।।

कनक भवन प्रभु दर्शन कीजे, धरिये अवध रज सीर ।

सुर नर मुनि परसत रज पावन, करत दरश मतिधीर ।।३।।

हनुमान गढ़ी की सुंदर शोभा, निरखत मेटत पीर ।

दीन संतोष सियावर राघव, हरत सकल जन भीर ।।४।।

                  [२५९]

अवधविहारी साँवरे मनमोहन दीनदयाल ।

दशरथ सुवन कौसल्या नंदन दीनबंधु शरनागतपाल ।।१।।

भुवन विमोहनि महाछवि निरखत मदनहु के उर साल ।

कर पद नयन कंज जलजानन ओंठ बिम्बा युत लाल ।।२।।

सरजू तीरे धीरे-धीरे चलत मनोहर चाल ।

भरत लखन रिपुसूदन सोहत संग अंजनीलाल ।।३।।

धनुष वान कर सोहत नीके उर बैजंती माल ।

चरन चिन्ह अड़तालिस मनहर मुकुट तिलक सिर भाल ।।४।।

जानकी जीवन जगजीवन प्रभु जन मन करत निहाल ।

पतितपावन दुख दोष नसावन मेटत विपति कराल ।।५।।

रीति प्रीति जन दीन को आदर चौदह भुवन भुआल ।

दीनानाथ दीन जन राखत डूबत लेत निकाल ।।६।।

सीतानाथ रघुनाथ हिय उमड़त दयासिंधु विशाल ।

सुमिरत राम दया बस काटत जनम मरण को जाल ।।७।।

सबबिधि हीन विरद बल जीवत राघव आरतपाल ।

दीन संतोष ओर अब देखौ रघुवर सहज कृपाल ।।८।।

                 [२६०]

चलो मन मंदाकिनि के तीर ।

चित्रकूट तीरथ वर सोहत, राजत श्रीरघुवीर ।।१।।

सीताराम मुदित मन विहरत, श्यामल गौर शरीर ।

सियाराम सेवा चित दीन्हे, मुदित लखन बलवीर ।।२।।

कामदगिरि दर्शन परदखिना, करु मज्जन करि नीर ।

प्रभु पद रज भूषित कण-कण वन, मंगलप्रद हर पीर ।।३।।

भजन बास गिरिवर की महिमा, गावत मुनि मतिधीर ।

दीन संतोष मिले प्रभु पद रज, मिटै बिषम भवभीर ।।४।।

                   [२६१]

चित्रकूट विहारी साँवरे तुम सम कोऊ न दिखाय ।

रघुकुलभूषण राम सियावर सीधे सरल सुभाय ।।१।।

जन हित कारण राम चले वन दशरथ मान बढ़ाय ।

तात मातु गुरजन पुरवासी थोड़ी अवधि बताय ।।२।।

तिहुँपुर रघुकुल होत बड़ाई राम सरिस सुत पाय ।

सीता अनुज सहित वन आए राजिवनयन हर्षाय ।।३।।

नीच निषाद भेंटि उर लायो दीनबंधु रघुराय ।

केवट जनम सुफल करि आयो चरण कमल धुलवाय ।।४।।

खग मृग वृंद पथिक मगवासी निरखे रूप लुभाय ।

कोल किरात भील वनवासी रहे जनम फल पाय ।।५।।

अगजग नायक श्रीरघुनायक बोलन मिलन सुहाय ।

कण-कण तृण गिरि भयो सुहावन महिमा सकै को गाय ।।६।।

आवत यहाँ होत मन भावन कामद दिह्यो बनाय ।

मंदाकिनि महिमा सुर गावत सेवत पाप नसाय ।।७।।

पाँवरी देइ भरत समुझायो दीन्हेउ अवध पठाय ।

सुर मुनि अभय कियो सुरनायक रावन करि वनराय ।।८।।

नीच जयंत सराहत राघव निज अघ कृत फल पाय ।

मुनिवर वेष विराजत सेवत लखन सिया मन लाय ।।९।।

राम समान राम जन गावत उपमा खोजि लजाय ।

दीन संतोष दीन जन राखत आरत दीन सहाय ।।१०।।

             [२६२]

चलो रे मन श्रीराम की शरन

सबबिधि लायक श्रीरघुनायक, आरत आरति हरन ।।१।।

अगजग नायक दीन सहायक, अघ अरु दोष दलन ।

करुणासागर विरद उजागर, सियावर शील सदन ।।२।।

दीन मलीन नहीं जग कोई, आश्रय एक चरन ।

सबबिधि हीन नहीं गुन एको, सुजस सुने श्रवन ।।३।।

शरन शबद सुनि प्रभुजी रीझत, फेरत नाहीं वदन ।

बानर भालु निसाचर राखे, दीनन भीर भवन ।।४।।

सरल स्वभाव ठकुरई न जानैं, दीनन प्रीति गहन ।

राम स्वभाव रीति उर धरिये, तजि अघ दोष डरन ।।५।।

दीन संतोष नहीं बल मोरे, जप तप आदि भजन ।

असरन सरन विरद बल जीवत, रखिए हेरि जतन ।।६।।

                 [२६३]

गहो रे मन सीताराम के चरण ।

सुंदर स्याम चिन्ह कुलिसादिक, जन दुख दोष हरण ।।१।।

छियांनबे चिन्ह मनोहर सोहैं, पद तल अरुण बरण ।

मंगलमूल पवनसुत सेवित, गुनगन अमित धरण ।।२।।

सुर मुनि साधु चहत पद पंकज, कल्मष कोटि दरण ।

सबबिधि लायक जनसुखदायक, तारण और तरण ।।३।।

अगजग जीवन मूरि सजीवन, संसृत रोग हरण ।

हरि हर बिधि को भाग्य बिधाता, कारण और करण ।।४।।

दीन मलीन ठौर को दायक, पोषण और भरण ।

दीन संतोष असरण जग जेते, तिनको एक सरण ।।५।।

                 [२६४]

श्रीरघुनाथ शरन तेरी आयों ।

दीन मलीन नहीं गुन एको, सुनि गुन विरद लुभायों ।।१।।

पूजा भजन भगति नहिं जानौं, मन नहि लखत लखायो ।

जग सो हित अपना करि मानैं, बहुतै नाच नचायो ।।२।।

दीनदयाल तोहिं बिनु जाने, वृथा जनम गवायों ।

मोसे दीन हीन को गाहक, तुम बिनु बहु दुःख पायों ।।३।।

कोल किरात भील बनवासी, काहू नहि ठुकरायो ।

सरल स्वभाव ठकुरई न जानत, दीनन हेरि बसायो ।।४।।

वानर भालु गीध आदिक भी, कृपा करि अपनायो ।

मोरे बल संबल रघुनायक, तुम सम और न पायों ।।५।। 
सीतानाथ करौ अब कृपा, भूले हमहुँ भुलायो ।
दीनबंधु तोहिं दीन पियारे, संत ग्रंथ सब गायो ।।६।।
दीन संतोष के राम रखैया, दीन सदा मन भायो ।

दीन हीन लखि श्रीरघुनायक, अपनी ओर लगायो ।।७।।

                [२६५]

राघवजी मोरे अवगुन चित न धरौ ।

मैं कपटी कुटिल मंद खल कामी मन मति विमल करौ ।।१।।

मैं क्रोधी द्रोही दम्भी गुमानी समस्त विकार हरौ ।

मन अतिसय कुतर्की संकित चंचल एकौ गुन न खरौ ।।२।।

मोह अग्यान पापरत स्वामी तव माया बस मैं फिरौं ।

सेवक सुखद शील गुन सागर सब दुख दोष हरौ ।।३।।

बूड़त जन प्रभु तोहिं पुकारै कर गहि पार करौ ।

दीनबंधु दुखहरन दयानिधि संतोष पे दया करौ ।।४।।

                 [२६६]

सुनौ राम रघुनाथ रघुवंश हीरे हो ।

तुम बिनु रहौं नाथ बल केहि केरे हो ।।१।।

दीन मलीन से जग नाता तोरे हो ।

दूजा नहीं नाथ कोई तुम्हीं एक मेरे हो ।।२।।

कहउँ सीतानाथ मैं दुहुँ कर जोरे हो ।

गाएँ कोई गान जो गुनगन तेरे हों ।।३।।

सदा तेरा ध्यान ही साँझ सवेरे हो ।

सिरपे तेरा हाँथ रहे जीहा राम टेरे हो ।।४।।

पद कंज प्रीति रहे दुर्मति न घेरे हो ।

चाहौं और नाथ क्या तव कृपा घनेरे हो ।।५।।

छूटे नहीं साथ तेरा चाहे बहु फेरे हों ।

रहे संतोष कहीं सदा आप नेरे हों ।।६।।

               [२६७]

हे नाथ मेरे रघुनाथ मेरे, तुमको कभी राम मैं न भुलाऊँ ।

मुख से जो निकले कभी गीत कोई, गुनगन ही तेरे रघुवीर गाऊँ ।।१।।

रघुकुल शिरोमणि तजि द्वार तेरो, कभी भी कहीं और मैं नहीं जाऊँ ।

प्रीति बढ़े नाथ चरणों में तेरे, परिहरि तुम्हें मैं किसी को न ध्याऊँ ।।२।।

जग की मैं आसा करूँ ना कभी नाथ, तुमसे ही मैं सारी आसा लगाऊँ ।

मन में हो कोई कभी बात मेरे, जनकी सुननहारे तुमको सुनाऊँ ।।३।।

जब भी रहूँ मैं कहीं नाथ जग में, तुमको सदा पास अपने मैं पाऊँ ।

धनुष वाण धारी रघुवर हमारे, कभी भी किसी और का न कहाऊँ ।।४।।

सिर पे रहे हाथ राघव तुम्हारा, जिह्वा जपे राम तुमको रिझाऊँ ।

लीला कथा नाम गुनगन तुम्हारे, कहि सुनि कभी नाथ मैं न अघाऊँ ।।५।।

मंगल मूरति सूरति तुम्हारी, देखूँ महाछवि मन में बसाऊँ ।

कृपा हो ऐसी दयामय तुम्हारी, चित को मैं अपने तुम्हीं से लगाऊँ ।।५।।

जैसा भी है दीन संतोष तेरा, जानौं तुम्हें और क्या मैं जनाऊँ ।

सुनि सुनि विरद बल संबल मैं पाता, अब रज चरण की शरण नाथ पाऊँ ।।६।।

               [२६८]

अवधपुरवासी साँवरे तेरो गुन कहियो न जाय

अमित गुनगन अमित महिमा, काहू के कहे न सिराय ।।१।।

महाछविधाम नयनाभिराम, रूप देखे मदन लजाय  ।

श्यामल सूरति मोहनी मूरति, चित मेरो लिह्यो चुराय ।।२।।

कर सर चाप मनोहर शोभा, मन मेरो देखे न अघाय ।

परम पावन चरित सुनि गुनि, मन मेरो सहज लुभाय ।।३।।

रूप चरित गुन सुमन सरीखे,  मेरो मन भ्रमर ललचाय

परम विनीत सुशील सियावर, जदपि अखिल जग राय ।।४।।

वानर भालु गीध बनचारी, राखे सरल सुभाय

आरतपाल सुजान शिरोमणि, दीनन गुर पितु माइ ।।५।।

सुमुख सुलोचन आरति मोचन, चितवत जन मुसुकाय

गई बहोरि थपन उथपन पन, तुम बिनु कौन सहाय ।।६।।

बल संबल अवलंब हमारो, जनि राखो मोहि बिसराय ।

श्रीरघुनाथ सुफल करौ नैना, सुंदर वदन दिखाय ।।७।।

परम उदार दीन जन गाहक, राखत धाम बसाय

दीन संतोष नाथ अब राखो, विरद की लाज बचाय ।।८।।    

                 [२६९]

जगत रचयिता जग के स्वामी जग के पालनहार ।

केहि विधि प्रभु मैं तोहिं रिझाओं जानत नहि व्यवहार ।।१।।

दीनदयाल तू भाव से तोषत कोमलचित है तुम्हार ।

कृपासदन अखिलेश दयानिधि दीनन के रखवार ।।२।।

करुनानिधि मैं तोहिं पुकारूँ सुनि लीजै अरज हमार ।

विनयावली जस-तस विनय पद असरन-सरन उदार  ।।३।।

अघ अवगुन छमि नाथ हमारे करि लीजे स्वीकार ।

क्रोधी कामी मैं अज्ञानी श्रीरामचरन उपचार ।।४।।

दारुन दीनता देखि द्रवउ प्रभु करि लीजे अंगीकार ।

कोटिक दीन उधारेउ स्वामी अब संतोष की बार ।।५।।

                     [२७०]

पतितपावन नाम राम साँची करौ ।

पूजा जप तप व्रत नियम विहीन, सबबिधिहीन मोहूँ उद्धरौ ।।१।।

वेद व्याकरण कवित-गुनहीन, अतिदीन जानि विरद निज अनुसरौ ।

विनयावली जस-तस विनयपद, दीनबंधु निज कर धरौ ।।२।।

जेहि गुन उधारे तारे महाखल, करुनानिधान सोइ गुन अनुकरौ ।

पतित संतोष पतित जन सनमानेउ सदा, मोहि लगि रीति सोइ न परिहरौ ।।३।।

।। श्रीसीतारामार्पणमस्तु  ।।

।। सियावर रामचंद्र की जय ।।

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